पृष्ठ:बाहर भीतर.djvu/१६६

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नवाब ननकू 64 उसे तो मै भूल ही गया था। मैंने देखा, वह एक जरी के काम का कीमती लहंगा है। नवाब ने कहा-वेचना चाहूं तो खड़े-खड़े दो सौ मे बेच दू। तुमसे तो मैं चालीस ही मांग रहा हूं। "लहंगा क्या राजा साहब ने दिया ?" "वे क्यों देने लगे ? अम्मी जान का है । राजेश्वरी आज आई थी। मुझे बुला- कर राजा साहब ने कहा-नवाब, हाथ मे इस वक्त कुछ नही है,राजेश्वरी के लिए कुछ खाने-पीने का बन्दोबस्त कर दो। आंखें उनकी शर्म से झुकी थी, और लाचारी से भीग रही थी। बस, इतनी ही तो बात है।" "अच्छा और तुम चुपके से घर आए, यह लहगा उठाया और यहा आ धमके ?" "जी हा, और तुम्हारी नीद हराम कर दी! बहुत हुआ अब, बस अब लाओ रुपये दो।" मैंने चुपके से दस-दस के चार नोट नवाब के हाथ पर रख दिए । मेरी आखो मे आसू आ गए, और मैने वह लहंगा उसी तरह लपेटकर नवाब की ओर बढ़ाते हुए कहा-इसे लेते जाओ। नवाब ने आपे से बाहर होकर चारों नोट फेक दिए। लाल होकर कहा- अच्छा, तो हज़रत मुझे भीख देने की जुर्रत करते है ! "नहीं भाई, ऐसा क्यो सोचते हो, मगर यह लहंगा मैं नही रख सकता।" "तो तुम्हारे रुपये भी नवाब नहीं ले सकता । आज राजा कामेश्वरप्रसादसिंह खाली हाथ हैं, और नवाब ननकू अपनी अम्मी जान का लहगा गिरवी रखने पर लाचार है, मगर आप यह मत भूलिए कि वे दोनो सलीमपुर के राजा महाराज नन्दनसिंह के नुतफे से पैदा हुए है, जो तीन बार सोने से तुले थे, और जिन्होने ग्यारह हाथी ब्राह्मणो को दान दिए थे। जिनकी दी हुई जागीरो को सैकड़ो शरीफ- जादों की आस-औलाद आज भोग रही है । इलाके भर मे जिनके पेगाव से चिराग जलते थे।" मैंने खडे होकर खुशामद करते हुए कहा-वह सब ठीक है नवाब साहब, , मगर ये रुपये तुम मेरी तरफ से राजा साहब को नजर करना। "हरगिज नही, राजा साहब कभी किसीकी नजर कबूल नहीं करते । तुम यह लहंगा गिरों रखकर चालीस रुपये देते हो तो दो।" लाचार मैंने हामी भर ली । मैंने लहगे को उसी तरह लपेटकर रख लिया और -