पृष्ठ:बाहर भीतर.djvu/१६८

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नवाब ननकू १७१ राजेश्वरी की उम्र चालीस को पार कर चुकी थी। बदन उसका कुछ भारी हो चला था, और माथे पर की लटो मे चादी की चमक अपनी बहार दिखा रही थी। फिर भी उसकी पानीदार आखों और मृदु मुस्कान मे अभी भी मोह का नशा भरा था। राजेश्वरी ने कहा- सरकार ने यों नजरें फेर ली, मुद्दत हुई पैगाम तक न भेजा । सुनती रहती थी, हुजूर के दुश्मनो की तबियत खराब रहती है। आखिर जी न माना, बेहया बनकर चली आई। "मुझे निहाल कर दिया तुमने इस वक्त आकर गजेश्वरी, दिल बाग-बाग हो गया । क्या कहू, बहुत याद करता हूं तुम्हें-मगर..." "हुजूर की नजरे-इनायत पर मैंने हमेशा फख्र किया है, और मरते दम तक करूगी।" "तुम जिओ राजेश्वरी, ईश्वर तुम्हे खुश रखे । यह मूजी बीमारी-क्या कहू, अब तो हिलने-डुलने से भी लाचार हो गया हू । पर यह सब उस भगवान् की दया है। फिर मुझे अपनी लाचारी का क्या गम है, जब तुम दुनिया की तमाम खुशी लेकर यहां आ जाती हो।" राजेश्वरी ने चार बीडा पान बनाकर राजा साहब को अदब से पेश किए। राजा साहब ने पान लेकर मुह मे रखे। खिदमतगार ने आकर अर्ज की-हुजूर, कुवंर साहब सलाम के लिए हाजिर "आएं वे"-राजा साहब ने धीरे से कहा । कुवर साहब ने झुककर राजा साहब को सलाम किया और पैताने की ओर अदब से खड़े हो गए। राजा साहब ने कहा-चाची को सलाम नहीं किया बेटे ।-कुवर साहब ने आगे बढ़कर राजेश्वरी को सलाम किया, और दो कदम पीछे हट गए। राजेश्वरी खड़ी हुई । आगे बढ़कर कुवर साहब के पास पहुची, उनके मुह पर प्यार से हाथ फेरा, और दो अशर्फिया निकालकर उनकी मुट्ठी मे जबरन थमा दी। कुवर साहब ने पिता की ओर देखा। राजा साहब ने कहा-ले लो, और चाची को फिर मुकर्रर सलाम करो। कुवर साहब ने फिर झुककर सलाम किया। राजेश्वरी ने दोनो हाथ उठाकर 1