पृष्ठ:बाहर भीतर.djvu/१७०

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नवाब ननकू १७३ "अच्छा देखू तो, राजेश्वरी के लिए क्या-क्या चीज़ लाए हो।" "देखिए, और दाद दीजिए नवाब को।" नवाब ने बोतल बगल से निकाली। और भी बहुत-सा सामान। "अरे, यह इतनी खटपट किसलिए की, नवाब साहब !" राजेश्वरी ने कहा। "जी, जैसे आप चिऊंटी के बरावर तो खाती ही हैं । फिर आई कितने दिन बाद है राजेश्वरी भाभी। जानती हैं, राजा साहब कितना याद करते है। जब राजेश्वरी ज़बान पर चढती हैं, आंखें गीली हो जाती है। अम्मी जान कहती थी, बड़े महाराज का भी यही हाल था, जरा-सी बात पर दिल भारी कर लेते थे।" "देवता थे नवाब साहब।" "और ये?" "ये ; इन्हें पहचाना किसने है अभी।" "दुनिया ऐसो को कभी न पहचान पाएगी।" खिदमतगार अंगीठी टच करके रख गया। नवाब साहब ने खुश होकर कहा- यह बात है रामधन, मगर देखो मैंने तुम्हें एक गाली दी है, और ये दो रुपये इनाम देता हूं। नवाब ने दो रुपये निकालकर रामधन की ओर बढ़ा दिए। रामधन ने नवाब के पैर छूकर कहा- हुजूर, आपकी गालिया खाकर ही तो जी रहा हू । रुपया-पैसा सरकार का दिया बहुत है। "मगर यह भी रख लो, महरिया को एक बढिया-सी चुनरी ला देना।" "वह उस दिन हवेली गई थी सरकार, तो बेगम साहिबा ने जाने क्या-क्या लाद दिया था, गट्ठर भर लाई थी।" नवाब ने तैश मे आकर कहा-अबे, रुपये लेता है या मतिख छांटता है, क्या लगाऊ धौल ? -रामधन ने रुपये लेकर उन्हें और राजा साहब को मलाम किया। राजा साहब ने हसकर कहा-देखा राजेश्वरी, नवाब का इनाम देने का तरीका। नवाब खिलखिलाकर हस पड़े। उन्होने कहा-झपाके से तश्तरियां ला, गिलास ला, पैग ला । जल्दी कर। क्षणभर मे ही सब साधन जुट गए। राजा साहब तकिए के सहारे उठग गए। शराब का दौर शुरू हुआ। नवाब ने गिलास में सोडा और शराब भरकर कहा-