पृष्ठ:बाहर भीतर.djvu/१७३

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१७६ नवाव ननकू अनुभूति ले रहे थे। वे लोग आप ही अपनी कला पर मुग्ध थे, आप ही अपनी तारीफ कर रहे थे, आप ही अपने मे पूर्ण थे। "तो हुजूर, अब कब ?" "जब मर्जी हो राजेश्वरी।" "तबीयत होती है कि कुछ दिन कदमो मे रहूं।" "मैं भी चाहता तो हू राजेश्वरी, पर तुम्हारी तकलीफ का ख्याल करके चुप । देखती हो, मकान कितना गन्दा है, सिर्फ दो ही खिदमतगार है। इन्हें भी महीनों तनखाह नहीं मिलती, पर पड़े हुए है। तुम इन तकलीफो की आदी रह जाता नही हो।" "मगर हुजूर, क्या मै उन खिदमतगारो से भी गई-बीती ह ?" "नही, नही, राजेश्वरी, मै तुम्हे जानता हूं।" "मगर हुजूर अपने को नही जानते । मेरी वह कोठी, जायदाद, नौकर-चाकर सब किसकी बदौलत है ? हुजूर ने जो पान खाकर थूक दिया उसकी बदौलत । अब हुजूर गरीब हो गए तो पुराने खादिम क्या बेगाने हो जाएगे?" राजेश्वरी की आखें भर आई। कुछ ठहरकर उसने कहा-शर्म के मारे मै खिदमतगारो को नही लाई, और इस टुटहे इक्के पर आई हू। मै कैसे बर्दाश्त कर सकती थी कि मालिक जब इस हालत मे हो तो उनकी बादिया ठाठ दिखाए ? "नही-नही, राजेश्वरी, यह बात नही । पर मैं अपनी आखो से तुम्हे तकलीफ पाते देख नहीं सकता। कभी देखा ही नहीं।" "इसीसे हुजूर, मुझे अभी जबर्दस्ती भेज रहे हैं, मेरी नही सुनते ?" "इसीसे राजेश्वरी।" "और इस लौंडी का कभी कोई तोहफा भी नही कबूल करते ! उस बार जब जनाना महल नीलाम हो रहा था, मैने कितनी आरजू की थी कि मुझे रुपया चुकता कर देने दीजिए, पुरखों की यादगार है । सब रिमासत गई, मगर रहने का महल- आप मेरे आंसुओ से भी तो नही पसीजे हजूर, आप बड़े बेदर्द है।" राजेश्वरी फूटकर रो पड़ी, और राजा साहब के सीने पर गिर गई। राजा साहब उसके सिर पर हाथ फेरते रहे। फिर कहा-तुम भी बच्ची हो गई हो राजेश्वरी, अब भला उतना बड़ा महल मैं क्या करता? अकेला पंछी। फिर उसमें -