पृष्ठ:बाहर भीतर.djvu/१७९

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१८२ द्वितीया वे आखों में भर लाए थे, भीतर प्रवेश पाती ही न थी। आंख खोलते ही वह बाहर खिसककर गिर पड़ती थी। विवश चन्द्रनाथ दिन-भर उस रूप-स्मृति को आखों की पलकों मे छिपाए पड़े रहे। हृत्पट न खुले या कब खुले, हमारे लिए कहना कठिन है। एक बात और हुई, एक दिन ननद के बड़े आग्रह से कांपते-कांपते पेन्सिल हाथ मे लेकर बड़े-बड़े टेढे अक्षरों में आनन्दी ने अपने हस्ताक्षर कर दिए थे। उन्हे उसी समय दौड़कर बहिन ने चन्द्रनाथ के हाथ में ला धरा। चन्द्रनाथ कुछ बोले नहीं, हिले भी नही ; जड़वत् बड़ी देर तक उन टेढ़े अक्षरो को देखते रहे। फिर उन्होने एक बार मर्मभेदिनी दृष्टि से अबोध बहिन को देखा, और फिर मसनद के सहारे उठंग कर सो गए । बहिन भाई के हास्य का यह सुयोग खोकर और उस दृष्टि से डरकर भीतर भाग गई। चन्द्रनाथ की अवस्था पैतीस वर्ष की थी। वे इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में अग्रेजी साहित्य के प्रोफेसर थे। उन्होंने इंगलैण्ड से ससम्मान डी० एल० का प्रतिष्ठित पद प्राप्त किया था। वे अतिशय कान्तिवान्, विनम्र, हास्यवदन, सुन्दर, बलिष्ठ, नीरोग, चरित्रवान्, गम्भीर और गण्यमान्य विद्वान् थे। सभा-सोसायटियों की वे जान थे, कालेज के छात्रों के प्रिय और मनभावन गुरु, मित्रों मे सभ्यहास्य और सविवेक विनोद की प्रतिमा थे। आनन्दी थी एक दरिद्र और अपढ़ परिवार की मातृहीना बालिका। वृद्ध पिता का नीरस प्यार और विमाता का विष-प्यार पाकर उसने बाल-काल के दिन काटे थे। मा को उसने देखा था, उसकी स्मृति भी उसके मन में थी। वह चाहे जब तनिक मनोवेदना प्राप्त करते ही 'मां' कहकर रो उठती थी। चिर-परलोकगामिनी मां के इतने निकट वह मुग्धा सुन्दरी बालिका अब भी, विवाहिता होने पर भी, थी। जीवन का यह प्रबल परिवर्तन,सौभाग्य का यह उदय, रानियों जैसा शृंगार, आदर और प्यार उसे उस मां से दूर न कर सका था। इस प्रकार चन्द्रनाथ अपनी द्वितीया वधू से आयु में ढाई गुने अधिक, विद्या में अनन्त तक अधिक, गम्भीरता और अनुभव में सहस्र गुणा अधिक, शरीर-परिमाण में चतुर्गुण और विस्तार में त्रिगुण अधिक थे; किन्तु रूप में चतुर्थांश और हास्य- चापल्य में अष्टमाश तथा लाज में दशांश थे। यह बालिका मेरी धर्मपत्नी है, सहधर्मिणी है, यह स्मरण करते ही और इस -