पृष्ठ:बाहर भीतर.djvu/१८०

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द्वितीया १८३ तथ्य पर विवेकपूर्ण दृष्टि डालते ही प्रथम बार तो वे सहम गए थे। अब वे केवल चमक भर उठते थे। , इतना अधिक मूल्य चुकाकर एक बार उस मुख का दर्शन करने के बाद चन्द्र- नाथ फिर उसे बहुत यत्न करने पर भी न देख सके। उसकी एक किरणमात्र देखने को उन्हे पचासो बार घर में व्यर्थ आना पडता, अनेक अस्वाभाविक चेष्टाए करनी पडती, विविध हास्य-कलाओ का आयोजन करना पड़ता, जो कुसमय और अनभ्यास के कारण बीभत्स बन जाती। बालिका में और कुछ चाहे न हो, पर पति की इस चेष्टा को समझने की मानो देवी शक्ति थी। वह अपने समस्त यत्न से अपने शरीर के अणुमात्र अंग को भी उनकी दृष्टि से बचाने के लिए सचेष्ट रहती। चन्द्रनाथ की साध्वी माता उसका दुर्ग थी, वह उन्हीके अचल मे प्राय. छिपी रहती थी। ममता, त्याग और प्रेम के जिन उच्च गुणो का माता शब्द मे तात्त्विक अस्तित्व है, वह सब भौतिक रूप मे इस पवित्र और पूज्य माता मे था । अनाथा, मातृहीना बालिका ने अचानक उनकी गोद पाकर अपने अब तक के जन्म को कृतार्थ माना। उसे जन्म देकर जो मातृ-मूर्ति विलीन हो गई थी, वह उसे अनायास ही मिल गई। उसके लिए वही माता पृथ्वी पर उस समय सबसे अधिक घनिष्ठ और सुपरिचित थी। परन्तु चन्द्रनाथ ? उसके धर्मपति ? वे तो उससे बहुत दूर थे। उसने उस समय घूघट के आवरण मे छिपकर गुरुजनो के आदेश-पालन से विवश होकर बड़ी कठिनाई, बड़े साहस से, अपना कण्टकित हाथ चन्द्रनाथ के हाथ न देकर विमूढ़ की नाईं अग्नि-प्रदक्षिणा अवश्य की थी; पर वे उसके पति है, पति-पत्नी का सम्बन्ध क्या होता है, उसके शरीर और आत्मा पर उसके पति का हिन्दू समाज की रूढ़ि के अनुसार असाध्य अधिकार है, यह उसे कुछ भी मालूम न था। अलबत्ता, अपनी विवाहिता सखियो से उसने अस्पष्ट रूप मे सुना था कि पति- गण विवाह के बाद कैसे असाध्य और अश्लील व्यापार करते है। इस बात से वह बहुत ही भयभीत, चिन्तित और घबराई थी। परन्तु यहां माता को पाने पर वह बहुत कुछ निश्चिन्त हो गई थी। उसे विश्वास था--माता के रहते मुझपर कौन अत्याचार करेगा ? किसका ऐसा साहस है ? वह दिनभर माता के साथ रहती, .