पृष्ठ:बाहर भीतर.djvu/१८३

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१८६ द्वितीया G फिर भी आनन्दी मार्ग भर सब भय को पी गई। वह बोली नही, उठी नहीं, खासी-खखारी भी नही, कुछ खाया-पीया भी नही । चन्द्रनाथ अपना सभी पाण्डित्य, प्रौढ़ ज्ञान और महत्त्व खोकर हर तरह उस बालिका की अनुनय-विनय करके थक गए। वह सिवा सिकुड जाने के और कोई चेष्टा न कर सकी। वह चन्द्रनाथ के बहुत अनुरोध करने पर भी पैर फैलाकर सोई नही । वस्त्रो को और अच्छी तरह समेटकर बैठी-बैठी ऊंघने लगी। हताश चन्द्रनाथ अपने बर्थ पर पड़ गए। नववधू, विवाह, एकान्त और सुयोग सब कुछ, पर फिर भी कुछ नही । उन्होने वर्तमान आखें बन्द कर ली, वे अब भूत की अनेक खट्टी-मीठी स्मृतियो को सोचते- सोचते कभी जागरित, कभी निद्राग्रस्त होकर स्वप्न देखने लगे। रात व्यतीत हुई, हरिद्वार मे हर की पैडी पर एक सजे हुए मकान मे चन्द्रनाथ . का डेरा पडा । आनन्दी ने समझा, सचमुच यह तो घर है । मैं अकेली स्त्री इस घर की स्वामिनी और ये अकेले पुरुष इसके स्वामी। अव उसे स्वामी के विषय मे सोचने का अपने जीवन में प्रथम बार अवसर आया । यह स्वामी क्या वस्तु है ? वही ? सखिया रस-रग की चर्चा में जिसका जिक्र किया करती है ? जो प्यार करता है, सुख देता है, वस्त्र-अन्न का दाता, रक्षक और पति है । वही है यह ? इससे बोलना पड़ेगा? मुह खोलना पडेगा ? अपनी आवश्यकता जतानी पडेगी ! अरे ! अरे ! इनसे तो भय लगता है-कितने लम्बे- चौड़े आदमी है ! कैसा भारी मुहू है ! कितना कम हसते है !बालिका सोच मे पड़ गई। उसने मधुर स्मृतियो को जाग्रत् किया। सहेलियों की रहस्यमयी मुस्कान उसे स्मरण हो आई। उसने प्रथम बार चाव की दृष्टि से पति को घूघट की ओट से देखा । परन्तु शोक ! किस प्रबल बन्धन ने उसके हृदय को विकसित न होने दिया? वह देखती तो रही, पर दृष्टिपात के प्रारम्भ मे उसके मन मे जो माधुर्य था, उसे वह स्थिर न रख सकी। चन्द्रनाथ थकित पड़े थे, पण्डे ने आकर कहा-यजमान, जोड़े से स्नान होगा? मै श्रीफल ले आया हूं! चन्द्रनाथ जरा हसे । उन्होने आनन्दी की ओर देखा । पण्डे से कहा-बहूरानी को राजी करों। मैं इसे अकेली क्या साथ लाया, आफत हो गई। रास्ते भर न खाया, न पिया, मिट्टी की लोढ़ी की तरह बैठी रही है। पण्डा वृद्ध और हंसमुख था। अपने पोपले मुंह पर हजारों सिकुड़ने डालकर