पृष्ठ:बाहर भीतर.djvu/१८८

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द्वितीया ओह तपस्विनी ! तुमने भूख-प्यास, क्रोध-निद्रा को जीत लिया था; तुम अपने साधारण वेश और साधारण आकृति मे किस दायित्व को छिपाए मेरे जैसे प्रकांड पुरुष के साथ आधी आयु तक चली ! कैसी सरलता, कैसे सुख, कैसे आनन्द के साथ ! तुम इतने जोर से कभी न हसती थी; पर तुम्हारे साथ उतने ही जोर से मैं भी तो हसता था। वह कितना हंसती है, पर मै उस हसी से इतना भयभीत होता हूं, जितना बच्चे बिजली की तडप से । सदैव इसकी आत्मा हसती है और मेरी रोती है। मेरे जीवन मे घाव है, मेरे निर्वाह में किरकिरी है, पर इसका जीवन तो अभी सोकर उठा है अपने जीवन के प्रभात मे यह गरीब मुझ घायल के साथ कहा तक कृत्रिम वेदना सहन करेगी ! उन्होने शय्या पर सुख की नीद लेती आनन्दी के स्वर्ण- शरीर को देखा, फिर उनकी दृष्टि सुदूर आकाश में टिमटिमाते एक तेजस्वी तारे पर जाकर अटक गई। उन्होंने देखा वह शीर्ण मुख, वह शान्त मुद्रा करुणभाव से उन्हे देख रही है । वे दोनो हाथ आकाश की तरफ फैलाकर-क्षमा-क्षमा, ओ तप- स्विनी, क्षमा ! कहकर उन्मत्त की तरह दौड़े। आनन्दी हड़बड़ाकर उठ बैठी। नीद पर झंझलाई । अपने पर मलामत की। वह अतिशय अपराधिनी की तरह भयभीत दीवार के सहारे खड़ी पति का उन्माद देखने लगी। बालिका मे उद्विग्न पति को सान्त्वना देने का साहस कहां था? चन्द्र- नाथ पृथ्वी पर गिरकर रोने लगे और वही सो भी गए। आनन्दी रात भर उनके पैरो को गोद मे लिए बैठी रोती रही। . दूसरे दिन दोनो ही चुप थे। चन्द्रनाथ नीची गर्दन किए चुपचाप भोजन कर गए। आनन्दी ने पति को भोजन कराकर स्वय कुछ न खाया । सन्ध्या समय चन्द्र- नाथ ने घर मे आकर देखा, आनन्दी चुपचाप गृहकार्यो मे लगी है । रसोई प्रथम ही से तैयार है। पति को देखते ही उसने विनयपूर्वक पति से भोजन को कहा । चन्द्र- नाथ ने पत्नी का वह स्वर प्रथम कभी न सुना था। उन्होने देखा, गम्भीर विषाद की रेखा और थकित भावना उग उत्फुल्ल नयनो को निर्जीव कर चुकी थी। पर वे स्वय बहुत गम्भीर थे। उन्होंने आनन्दी पर कुछ ध्यान न दिया; चुपचाप भोजन करके बाहर बैठक मे चले गए। धीरे-धीरे रात्रि भीर होने लगी। चन्द्रनाथ शयनागार मे जाकर देखा, दूध के समान शय्या पर फूलो से शृगार हो रहा है, परन्तु आनन्दी का वहां पता बा-१२