पृष्ठ:बाहर भीतर.djvu/१८९

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द्वितीया नही । चन्द्रनाथ ने इधर-उधर देखा । घरभर देख डाला। आशका और भय से वे छटपटाने लगे-हे ईश्वर ! मामला क्या है ?-रसोई के भीतर की ईधनवाली कोठरी मे आनन्दी धरती पर पड़ी थी। उसे होश न था । चन्द्रनाथ ने बाहर लाकर उसे देखा-शरीर ठण्डा, और अकड़कर लकड़ी के समान बन गया है, आखे पथरा गई है, मुख से झागआरहा है । चन्द्रनाथ सब समझ गए। उन्होने धैर्य से नाड़ी और हृदय के स्पन्दन को देखा और एक क्षण भी व्यर्थ न खो, डाक्टर के लिए दौड़े। 7 - प्रभात की ऊषा-उदय के साथ ही साथ आनन्दी ने चैतन्य-लाभ किया।दीप की क्षीण रेखा मे उसने विपण्णमुख पति को अस्त-व्यस्त वेश मे पलग के सिरहाने खड़े देखा । उसके नेत्र-कोण से अश्रु-जल बह चला। धीरे से आनन्दी ने अपना हाथ ऊपर उठाकर पति का हाथ पकड़ लिया। चन्द्रनाथ झुककर बैठ गए। उन्होने कहा- यह तुमने क्या किया? आनन्दी के होठ फड़फड़ाकर रह गए। उसने अभिप्राय की दृष्टि से पति को देखा। "क्या तुम्हें कुछ कष्ट था !" "कष्ट ? मैं नवीन जीवन मे आई थी। परन्तु मै अयोग्य पूरी चेष्टा करने पर भी आपको सुखी न कर सकी। जीवन भर जो प्यार, सुख-आदर मुझे नसीब नही हुआ था, वह आपने मुझे दिया। हाय ! कहा मै अभागिनी तुच्छ बालिका और कहा आप? ओह ! आपकी महिमा, वह भी मैं समझ नही सकती । मैं पढ नही सकती, सीख नहीं सकती। मैं जितना ही आपको सुखी बनाने की चेप्टा करती, उतनी ही मूर्खता करती। मै आपके जीवन मे किरकिरी हू-मुझे जाने दीजिए, मुझे चरणो की धूल दीजिए।" चन्द्रनाथ को इस अवसर पर, इस प्रगल्भ भापण के सुनने की आशा न थी। आनन्दी फिर बोली--मेरी जितनी योग्यता है, उतना ही मैं सीख सकती हू, आप मुझे जितनी बड़ी बनाना चाहते है, उतनी मै बन कैसे सकती है ? चन्द्रनाथ ने बात टालकर कहा-तुमने क्या खाया था "अफीम !" "कहा से मिली ?" आनन्दी चुप रही। ?