पृष्ठ:बाहर भीतर.djvu/१९२

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१६६ पुरुषत्व रामेश्वर ने गम्भीरता से कहा-ऐसी ही इच्छा है तो प्रारम्भिक पाठ तो मै ही पढा दूगा। "अच्छी बात है, आज ही से सही। पर कुछ फीस-वीस" "समस्त आशा और अभिलाषाओका बलिदान । क्या तुममे इतना साहस है ?" "साहस ?" 1 रामेश्वर ने घूरकर मित्र को देखा-हा, साहस ! इस दुरूह विद्या की फीस इतनी ही अधिक है। "अच्छी बात है । अव पाठ शुरू हो, मुझमे बहुत साहस है।" "न भी होगा तो करना पडेगा। अच्छा सुनो-पहले यही बात विचारनी चाहिए कि स्त्रिया पुरुषो से क्या चाहती है। "क्या चाहती हैं ?" राजेन्द्र ने व्यग्र होकर पूछा । योग के गहन सूत्र की तरह रामेश्वर ने कहा। "पुरुषत्व।" "मैं समझ गया।" "मुझे भय है, तुम नही समझे । पुरुषत्व क्या वस्तु है, यह भी तुम्हे समझने की ज़रूरत है।" "क्या मै पुस्पत्व को भी समझने की योग्यता नही रखता?" "जो पुरुष पुरुपत्व को समझता है, वह कभी इन करुण कहानियो का दयनीय पात्र नहीं बनता।" "तब वह पुरुषत्व क्या वस्तु है ?" "पुरुषत्व वह वस्तु है, जिसका स्त्री के शरीर, स्वभाव, जीवन-निर्माण और उसके स्त्रीत्व मे नितान्त अभाव है । और उसके बिना स्त्रीत्व उतना ही बेस्वाद है, जितना लवण के बिना रसोई।" "किन्तु उसकी रूपरेखा क्या है ?" "केवल भावगम्य, और उसका प्रभाव अमोघ है। कोई स्त्री उसके सम्मुख सीधी खड़ी रह ही नही सकती।" "किन्तु वह अत्यन्त निष्ठुर और बड़ी गर्वीली है।" "यह सम्भव ही नहीं है।" "वह निरी पत्थर या इस्पात की बनी हुई है।"