पृष्ठ:बाहर भीतर.djvu/१९३

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पुरुषत्व "स्त्रिया इन वस्तुओ की बनाई ही नहीं जाती।" "तुम निश्चय ही उसके सम्मुख जाकर लज्जित और विफल होओगे।" "यह प्रकृति के मर्वथा विपरीत बात है।" "तब मेरी तुम्हारी बाजी रही, अगर तुम उसका गर्व भजन कर सको, उसे वश मे ला सको, तो मैं दस हजार रुपये हारा।" "देखता हू, तुममे साहस का उदय हो रहा है । अस्तु, यद्यपि किसी स्त्री को वश मे लाने के लिए इतना आतुर होना 'पुरुषत्व' को न शोभा देनेवाली बात है, पर पुरुषत्व का अर्थ अब तुम्हे मप्रयोग समझाना पड़ेगा। मुझे तुम्हारी चुनौती स्वीकार है। मैं आज ही रात को वहा चलूगा, मगर तुम्हे मेरी आज्ञा के सर्वथा अधीन रहना पडेगा।" "मुझे मंज़र है।" दोनों मित्र विदा हुए। - उसका नाम था हीरा। रूप की हाट मे उसके चढते दिन थे । डेरेदार, ठिकाने की वेश्या थी। उमकी मा ने गाने-बजाने, अदब-कायदे की वेश्या-वृत्ति सबधी शिक्षा के सिवा उसे अग्रेज़ और हिन्दी-उर्दू की भी कुछ शिक्षा दी थी। लाखो की सम्पदा उसकी मा कमाकर जवानी से उतरी थी। उसके बाद वह नायिका के पद पर तीन-चार यौवनो का सम्पूर्ण सौदा कर चुकी थी। शहर की हवेली बीच चौक मे अपनी शान नहीं रखती थी। नगर के बाहर की कोठी नवाबी ठाठ से सजी थी। हीरा जिस रंग की पोशाक पहनकर उतरती थी, उसी रग के जवाहरान से जुडं गहने पहनती और उसी रग से रगी मोटर मे बैठती। नौकरो और ड्राइवरो की वर्दी भी उस रग की होती थी। सन्ध्या के समय हीरा के रूप और ठाठ पर नगर की आखें सड़को पर बिछी रहती थी । साधारण जमीदार तक वहा पहुचने की हिम्मत न करते थे, सर्वसाधारण की बात तो दूर है । वेश्या जरूर थी, अस्मत-फरोश जरूर थी, परन्तु कितनी महगी, कितनी दुर्लभ, कितनी नफीस कि शहर मे प्रायः सभी की ज़बान पर चाहे जब हीरा उछलने लगती थी। हीर की उम्र का सत्रहवा साल जा रहा था। उसका रग मोती के समान स्वच्छ और पानीदार था, गालो की सुर्जी,मानो छूते ही खून टपक पड़ेगा, होंठ और आखे मानो परस्पर स्पर्दा करती थी। अमत और इलाहल विप का आखो मे अटट