पृष्ठ:बाहर भीतर.djvu/१९४

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पुरुषत्व झरना झरता ही रहता था। जो एक बार देखता था, मर जाता और क्षणभर मे ही जी जाता था। धवल दन्त-पक्ति की बहार उन रसभरे उत्फुल्ल होठो के अरुण वर्ण के बीच कैसी मोहक,कैसी प्यारीलगती थी! गर्दन और वक्षस्थल मानो इटली के किसी कारीगर की सगमरमर पर अमर करामात थी! बढिया ईरानी कालीन पर बैठकर विजली के दहकते प्रकाश में, विजली के पखे के नीचे अपने महीन, सादे, उज्ज्वल परिधान मे जब वह गाने बैठती थी, और उस हस के समान शुभ्र कण्ठ से इन कव्वाली और गजलो के स्थान पर जब विशुद्ध स्वर, ताल, लय, मूर्च्छना युक्त सगीत-लहरी का स्रोत बहता था, उस समय की बात क्या कही जाए ! उस उमड़ते रस-समुद्र मे पहले वह स्वय डूबती, अर्द्ध-निमीलित नेत्र, कम्पित कण्ठ-स्वर, फडकते होठ और अलसता से अस्त-व्यस्त बिखरती हुई देह-किस मर्द को मर्द बना रहने दे सकती थी ! ऐसी ही वह अप्रतिम रूप-गुण-सम्पन्ना, राजमहलो मे भी दुर्लभ स्त्री-रत्न, वह वेश्या-पुत्री थी, जिससे निराश होकर राजेन्द्र आत्मघात की अभिलाषा मन में सचित कर रहे थे और उनके मित्र जिसे विजय कर लेने का बीड़ा उठा चुके थे। ये दोनों ही मित्र नगर के गण्पनान्य तथा अपार सम्पत्ति के स्वामी थे । दोनो की ही सज्जनता मे कलाम न था, पर युवक राजेन्द्र बाजार के पत्ते चाटने के शौकीन थे। उनके मित्र रामेश्वर उनसे उम्र मे कुछ बडे थे, परन्तु विचारवान् गम्भीर और चरित्रवान् व्यक्ति थे । एक चरित्रवान व्यक्ति, जो स्त्रियों के सम्मुख अपने को पुरुष समझता हो, उस पुरुष की समझ मे आ ही नहीं सकता था, जो प्रतिक्षण स्त्रीमात्र के लिए दास बना रहने का अभिलाषी था। और यही दोनो के जीवन की विभिन्न दिशाए थी, जहा बहुधा दोनों मित्र टकराया करते थे। इस बार रामेश्वर ने वेश्या के घर जाना स्वीकार करके राजेन्द्र को आश्चर्य- चकित कर दिया । वह यह कौतूहल भी देखना चाहता था कि समस्त नगर की स्पर्द्धा और अभिलाषा की वस्तु हीरा को यह व्यक्ति और ऐसी कौन वस्तु देकर वश करेगा, जो मै न दे सका था , और और वह 'पुरुपत्व' की कैसी विचित्र व्याख्या करेगा। इसी विचार से एक प्रकार से प्रसन्नचित्त राजेन्द्र घर लौटा । उसी ज्वलन्त प्रकाश मे हीरा साज़िन्दो सहित बैठी थी। सामने केवल दोनों -