पृष्ठ:बाहर भीतर.djvu/१९५

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पुरुषत्व १६६ . मित्र थे। राजेन्द्र के अनुरोध से कोठे के द्वार बन्द करा दिए गए थे। हीरा को देखकर रामेश्वर के चित्त मे एक अपूर्व भाव उत्पन्न हुआ। हाय ! सर्प को यह सौन्दर्य ! उन्होने क्षणभर में उस रूप को हृदयंगम कर एक बार कमरे पर दृष्टि डाली, और एक मसनद के सहारे उढ़क बैठे। सगीत-लहरी उठी और गिरी, जीवन आया और गया। राजेन्द्र लोटन कबू- तर हो रहा था, मिनट-मिनट पर नोट फेक रहा था। पर रामेश्वर अचल-निवि- कल्प प्रतिमा की तरह हीरा के मुख पर दृष्टि दिए सगीत-सुधा पी रहे थे । उनके नेत्रो मे कौतूहल नहीं, उन्माद नही, औत्सुक्य नही, विनोद नही, उदासीनता नहीं, मोह नही । साथ ही होठ मे हास्य नही, स्पन्दन नही। बालिका वेश्या-पुत्री ने यह देखा-समझा, धीरे-धीरे वह इस वज-पुरुष की ओर आकर्षित हुई। वह उसके होठो मे एक मुस्कान देखने की अभिलाषा लेकर और भी यत्न, और भी कौशल, और भी मनोयोग से अपनी कलाओ का विस्तार करने लगी। उसके ललाट पर पसीना हो गया। वह थककर हाफने लगी। उसने लज्जित होकर गाना बन्द कर दिया । जीवन में उसे पहली बार ही ऐसा नवीन पुरुष दिखा, जो उसे देखकर मरा नही और सुनकर जिया नहीं। वह अपने वस्त्र सभाल चादी की तश्तरी मे पान लेकर उठी, प्रथम रामेश्वर के सामने अदब से झुककर तश्तरी की । रामेश्वर ने पान उठाया और सौ रुपये का नोट तश्तरी मे फेक दिया। क्षणभर को हीरा अवाक् हुई। उसने एक ही क्षण मे रामेश्वर को, नायिका को और तश्तरी को देखा, एक बार वह झुकी और आगे बढ़ी। रामेश्वर उठ खडे हुए। राजेन्द्र भी उठे। उस दिन फिर हीरा और नही गा . सकी। दो सप्ताह बीत गए। हीरा को नित्य ही गाना पड़ता था, परन्तु उसका उल्लास और मग्न होना कहीं चला गया था। उसका मन उदास जौर चचल रहता था। बहुधा वह गाते-गाते बहुत ही निरुत्साह हो जाती थी-कभी-कभी वह गाना बन्द कर एकदम ऊपर जाकर पड़ रहती थी। इस नई परिस्थिति का कारण वह स्वय नही जानती थी; मानोकोई एक नई ठोकर उसके हृदय को लगी थी। किसी अतयं शक्ति से रामेश्वर की मूर्ति दिनभर मे लाखो बार उसके सम्मुख खड़ी हो जाती