पृष्ठ:बाहर भीतर.djvu/१९८

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२०२ पुरुषत्व वह विनय और संकोच से सकुचित यौवन को अपनी वेश्या-शक्ति के बल पर यथा- सम्भव चैतन्य करके गाने के आयोजन मे लगी। रामेश्वर ने बाधा देकर कहा-कष्ट न कीजिए, मुझे आपकी माताजी से कुछ बाते एकान्त मे करनी है । क्षमा कीजिएगा। हीरा अन्यमनस्का हो, उठकर बाहर चली गई। हाय रे आज का शृगार ! नायिका ने सुना, चौकी और गम्भीर हुई । कुछ ही मिनट मे वह एकान्तवार्ता समाप्न हुई। हीरा दो हजार रुपये मासिक पर रामेश्वर की नौकर हुई। विना उससे पूछे ही उसका सौदा हो गया, यह सुनकर हीरा बहुत ही क्रुद्ध हुई। उसने धरती मे पैर पटककर कहा-वह पुरुष ! वह नीरस, गवार, गूगा, बहरा पुरुप | उसकी यह हिम्मत | मै इससे बदला लूगी, मै इसका हर तरह अपमान करूंगी। वह उसी क्रोध मे भरी नायिका के पास गई । नायिका ने वेश्या- धर्म की कठोर मर्यादा का विस्तृत वर्णन करके उसे शान्त किया। हीरा को उसी दिन मालिक की सेवा मे चली जाना पड़ा। हीरा के लिए एक नये बंगले की आयोजना की गई। उसमे चार दासी, दो दाम और एक प्रबन्धक रख दिया गया। पोशाक और खाने-पीने की वस्तुओ की गिनती न थी। कमरो में बहुमूल्य वस्तुओ की सजावट का पार न था। शृगार और ऐश्वर्य के नाते अटूट सम्पदा जो कुछ खरीद सकती है, वह सब वहा प्रस्तुत था। हीरा की रुचि और अभ्यास के अनुकूल आभूषण, मोटर और अन्य सामान प्रथम ही से उपस्थित कर दिए गए थे। उस राजमहल सदृश बगले में आकर हीरा कित, भीत, विमूढ़ बनी खड़ी रही। यह सब कुछ हो सकता है, इसकी उसे कल्पना भी न थी, परन्तु इस समस्त वैभव के पीछे जो मूर्ति छिपी हुई है, वह- वह-निर्मम, रसहीन मूर्ति ? अरे ! "हीरा सोचने लगी, क्या वह मूर्ख, बेतमीज और नीरस है ? ना-ना, यह तो सम्भव ही नहीं, यह सब कुछ तो कुछ और ही मालूम होता है । परन्तु चाहे जो कुछ भी हो, मै उसका अपमान करूगी। मैं कभी उसके अधीन न होऊंगी। सन्ध्या हुई । बिजली के आलोक से बगला इन्द्र-भवन हो गया। मानो अनगिनत आलोकित नक्षत्र के नीचे हीरा छिप रही थी। उसने सहसा मोटर आने का शब्द सुना। उसने बलपूर्वक अपनी प्रतिज्ञा को दुहराया-न बोलूगी, न बोलूगी, न - )