पृष्ठ:बाहर भीतर.djvu/१९९

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पुरुषत्व २०३ बोलूगी। स्वयं मान करना और औरो का मान भंजन करना हीरा का व्यवसाय था। वह पुरुष जो नारी-हृदय का नही, नारी-शरीर का भूखा है, हीरा के द्वार पर खड़ा होता है और धरती तक झुकता है ! यह दृश्य हीरा के नेत्रों को स्वाभाविक था। पुरुष की वह तस्वीर हीरा की चिरपरिचिता थी, जो हीरा के लिए प्यासी छट. पटा रही थी। किन्तु उसी पुरुष-छाया के नीचे पौरुष का कुछ और भी रूप रहता है, यह हीरा को मालूम न था। अपने अभ्यास के अनुसार उससे भी अधिक, बहुत अधिक तनकर हीरा उस शत्रु-पुरुष को, जिसने उसके स्त्री-शरीर की ज़रा भी परवाह न की थी, परास्त करने अपनी सम्पूर्ण शक्ति लेकर तैयार हो गई । आधा घण्टा व्यतीत हो गया। हात मोटर के जाने का शब्द सुनकर वह चौकी। उसने खिड़की से देखा, वही वज्र- पुरुष वीर की तरह उडा जा रहा है। हीरा क्रुद्ध सर्पिणी की तरह फुफकार मारकर, पैर पटक-पटककर ज़ोर से कमरे मे घूमने लगी। समस्त दर्प, शृगार किया हुआ रह गया, शत्रु सामने ही न आया। परन्तु हीरा पराजित योद्धा की तरह विचलित हो गई। उसने दासी को बुलाकर पूछा . "क्या बाबू साहब आए थे?" "जी हां !" "किसलिए?" "सरकार को कुछ चाहिए तो नही, यह देखने।" "कुछ कहते थे?" "कहते थे कि मालकिन को कोई कष्ट न हो और उनका हुक्म फौरन तामील किया जाए। हीरा ने गुस्से से होठ चबाकर कहा-हुक्म फौरन तामील किया जाए ? "जी हुजूर।" "मेरा हुक्म है, यह शख्स बगले मे न घुसने पाए।" दासी मुह ताकने लगी। हीरा ने डपटकर बाहर जाने का हुक्म दिया। दासी के जाते ही हीरा पलग पर गिरकर फूट-फूटकर रोने लगी। उस दिन रातभर हीरा सो न सकी। --