पृष्ठ:बाहर भीतर.djvu/२००

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

पुरुषत्व । कई दिन बीत गए। रामेश्वर हीरा के आज्ञानुसार बगले में नहीं आते। वे प्रतिदिन नियमित समय पर मोटर मे आते और बगले के कम्पाउण्ड के बाहर मोटर ही मे बैठे-बैठे हीरा की कुशल ले जाते थे। उस क्षण की बाट हीरा प्रातःकाल से सन्ध्या तक देखा करती। मोटर की शब्द-ध्वनि मानो जगत् मे एक ध्येय वस्तु थी। उनके आने से घण्टो प्रथम वह खिडकी मे, पर्दे की ओट मे, खडी हो जाती। प्रथम वह छिपकर खड़ी होती, धीरे- धीरे प्रकट होने लगी। अब वह बिल्कुल खुली खिडकी मे सामने खडी होती थी प्रतिदिन नया शृंगार, नई पोशाक, नया केश-विन्यास होता था। पर हाय रे पुरुष- पाषाण ! एक क्षण को भी वह ऊपर दृष्टि करके उस जीवित आलोक को देखता न था। किस निर्जन वन मे हीरा ने रूप और यौवन की हाट लगाई !! धीरे-धीरे हीरा को वहा रहना असह्य हो गया। यह भी कोई बात है ! दे आते हैं, खबर ले जाते है, रानियो के ठाठ और सुख दे रखे है । सब कुछ दे ही जाते है, मागते कुछ नही । हाय ! मैं इनका कब अपमान करू ? कैसे करू ? क्या इन्हे मुझसे कुछ भी नही लेना है ? मेरे पास क्या इस वज्रपुरुष को देने योग्य कुछ नहीं है ? यह रूप, यह यौवन, यह शरीर, यह शृगार-उफ ! नगर मे इसके कितने दाम हैं ! मगर दाम ? दाम, दाम, दाम की बात याद करके वह सोचने लगी। वह सोचने लगी, दाम तो इन्होने भी दिए है। इतना खर्च, इतना धन-व्यय, इतना यल ! तब फिर यह किसलिए? इस सौन्दर्य को सुखाने या सड़ाने के लिए ? हीरा विचार-सागर में डूबने-उतराने लगी। पर थाह न मिली। दस दिन और व्यतीत हो गए। हीरा के अस्वस्थ होने का समाचार पाकर रामेश्वर नगर के दो प्रमुख डाक्टरो को लेकर दौड़े। रामेश्वर बगले के बाहर ही मोटर पर बैठे रहे। हीरा पलग पर पड़ी थी। डाक्टरो ने आते ही यन्त्र सभाले। हीरा ने उत्तेजित होकर कहा-आप लोगों के कष्ट की ज़रूरत नहीं है, कृपा कर आप जाइए ! डाक्टरो ने उसे समझाना चाहा । उसने झल्लाकर कहा- वे कहा हैं ? हाय ! वे कहां है ? रामेश्वर ने धीरे-धीरे कमरे मे प्रवेश किया।हीरा ने उधर से मुह फेर लिया। रामेश्वर ने कहा-जरा आप इन्हे देख लेने दे।