पृष्ठ:बाहर भीतर.djvu/२०२

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पुरुषत्व उमड़ रहा था, बांध टूट गया था। अब हीरा नहीं रो रही थी, नारी-हृदय रो रहा था। रामेश्वर ने कहा-आप क्या चाहती है ? कहिए तो, मैं शक्ति-भर आपकी सेवा करूगा। "मै क्या चाहती हू, यह आप पूछते है ? स्त्रिया पुरुषो से क्या चाहती है, यह आप पुरुष होकर नही जानते ? आप ऐसे निष्ठुर पुरुष..." हीरा बीच ही में रह गई । आवेश से उसके होठ काप रहे थे। रामेश्वर ने सयत भाषा मे कहा-मैं अच्छी तरह जानता हू कि स्त्रियां पुरुष से क्या चाहती हैं। परन्तु आप स्त्री नही, वेश्या है, यह दुखद सत्य मुझे कहना ही पड़ा। वेश्या को जो मूल्य देना होता है, मै शक्ति-भर दे रहा हूं। हीरा कुछ भी न समझी । वह बोली -क्या वेश्याए स्त्री नही होती? "नहीं।" "कैसे ?" हीरा ने गर्दन उठाकर पूछा रामेश्वर कहने लगे-स्त्री जगत् की एक पवित्र स्वर्गीय ज्योति है। वह पुरुष-शक्ति के लिए जीवन-सुधा है। स्त्री के बल पर पुरुष असख्य उत्तरदायित्व का भीषण से भीषण भार सहन करके भी जीवित रह सकता है। वह स्त्री दया, प्रेम, पवित्रता, दान, करुणा और कोमलता की मूर्ति होनी चाहिए। त्याग उनका स्वभाव, प्रदाव उनका धर्म, सहनशीलता उनका व्रत और प्रेम उनका जीवन है । परन्तु वेश्या जगत् की एक विकृत वस्तु है ! देखने में मोहक और कोमल, किन्तु वास्तव मे हलाहल विष, अपहरण उनका व्यवसाय, छल उनका स्वभाव, पाप उनका जीवन और पतन उनका मार्ग है । स्त्री जिस वस्तु को शरीर के टुकड़े-टुकड़े होने पर भी किसीको अर्पण नही कर सकती, वेश्या उसे खुले बाजार टके सेर बेचती है । जानती हो, वह क्या वस्तु है ? "क्या वस्तु है ?" "अस्मत; हाय ! वह अस्मत, जिसका वास्तविक मूल्य इस पृथ्वी पर है ही नही, है, और विधाता ने स्त्री समझकर वह दी थी। उसे आप-वेश्याएं-कोढ़ी, कलंकी, पतित, चाहे जिसे भी बेच देती है। ताबे के टुकडो मे इतनी शक्ति हम स्वार्थी पुरुष भी कभी नही अनुभव कर पाते।" इतना कहकर रामेश्वर क्षणभर चुप रहे। हीरा चुपचाए, निश्चल पैरो मे 9 ,