पृष्ठ:बाहर भीतर.djvu/२०४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

कन्यादान कन्यादान कहानी मे आर्यसमाज के कमजोर सुधार-पक्ष पर एक व्यंग्य है | सुवार मे जहा रूढि का प्रभाव है, उसीपर एक करारी चोट है | आर्यसमाज हिन्दू- समाज का एक सुधरा हुआ रूप है । कुरीति-पोषण सम्बन्धी बहुत कम आरोप आर्यसमाज पर किए जाते हैं | पर यह एक अति महत्त्वपूर्ण आक्षेप आर्यसमाज पर हे | यद्यपि यह कहना अब से तीस वर्ष पुराना है, और अब तो हिन्दू समाज का भी रुख बदला हुआ है, फिर भी कहानी का यग्य महत्त्वपूर्ण है | सोद्देश्य कहानी में लेखक कैसा तीखा व्यग्य करता है यह कहानी इसीका एक सजीव उदाहरण है। आगरा मेडिकल होस्टल के बराण्डे मे दो व्यक्ति खड़े थे । इनमे एक स्त्री, दूसरा पुरुष था। स्त्री की अवस्था सोलह वर्ष और पुरुष की इक्कीस के लगभग थी। स्त्री वास्तव में बालिका थी। उसका रग चम्पे की भाति सुहावना था, और तनिक-सी ही बात से उसके गाल लाल हो जाते और उसकी सरस आखे धरती मे झुक जाती थी। यह उसकी लजीली प्रकृति के कारण था । वह धानी रग की साडी और ऊची एडी के बूट पहने, सिर नीचा किए खड़ी थी। युवक उत्सुकता से उससे किसी सुखद और अनुकूल उत्तर की प्रतीक्षा मे खड़ा था। दोनो ही व्यक्ति मेडिकल स्कूल के छात्र थे। बालिका ने सिर उठाकर कहा : "आप इस तरह बार-बार न आया करें, सब लोग हसते है।' "सब लोग हसते है, इसमे तुम्हारा क्या दुखता है ?" "मैं चाहती हू, आप यहा न आया करे।" "और मैं यह चाहता हू कि सदा यही घूमा करू।" "आपको बदनामी का भय नही ?" "रत्ती भर भी नही।" "आपको सब भी नही ?" २०८ बा-१३