पृष्ठ:बाहर भीतर.djvu/२०६

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२१० कन्यादान चाहा, पर होंठ कापकर रह गए। युवक ने कहा-बोलो-बोलो। "क्या?" "सुना नहीं?" "नहीं।" "फिर सुनो, क्या तुम मेरी होगी ?" युवती भाग गई। युवक खड़ा निनिमेष दृष्टि से देखता रहा। कन्या का नाम था इदु और युवक का देशराज । कन्या लाहौर के आर्यसमाज के मत्री की पुत्री थी, और युवक डेरा गाजीखां के आर्यसमाज के प्रधान का पुत्र। दोनो ही को घुट्टी मे आर्यसमाज की भावना पिलाई गई थी। दोनों के पिताओं में वाग्दान हो चुका था। घटना-क्रम से दोनों ही आगरा मेडिकल कालेज मे भरती हुए और घटनावश कन्या के पिता दक्षिण अफ्रीका व्यापार-संबंधी कार्यों से चले गए। घटनावश युवक की भी पैतृक संपत्ति अचानक सिंधु में बाढ आ जाने से डूब गई। यह घटनाओ का घटाटोप भी क्या बला की वस्तु है ! अस्तु । हम नहीं कह सकते कि भीतर ही भीतर मनुष्यों और गृहस्थों की भावना मे क्या-क्या परिवर्तन होते रहते है, फिर भी यह तो अवश्य कहा जाएगा, वह सिर्फ भीतर छिपी नही रहती, बाहर फूट पड़ती है। दोनों ही युवक-युवती परस्पर प्रेम करते थे। यह तो आप समझ गए होगे। अब यदि उपर्युक्त गुप्त संभाषण सुनकर आप कहें कि कन्या शायद प्रेम नही करती, तो आप कहिए, हम आप जैसे अनाड़ियों को समझाए कैसे? पर इस बात का हम विश्वास दिलाते है कि बातचीत मे कन्या जितनी ज़बान-चोर थी, उतनी कलमचोर नही। वह किताब की किताब चिट्ठिया युवक को लिखती और युवक पोथों में उनका उत्तर देता। ईश्वर जाने दोनो कालेज में पढ़ते-लिखते भी थे, या महज़ पत्रों ही मे दिल और दिमाग को हल करते थे। इस प्रकार दो वर्ष व्यतीत हो गए। कन्या के पिता ने विवाह का कुछ भी निर्णय नहीं किया। युवक विकल हो गया। उसने अनेक चिट्ठियां लिखी । अन्तिम चिट्ठी से झंझलाकर कन्या के पिता ने युवक को लिख दिया-तुम अपने विवाह के संबंध में मुह फाड़कर हमें