पृष्ठ:बाहर भीतर.djvu/२११

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कन्यादान २१५ जालंधर में इन्दु की सोलह कैलाए फली। वह परीक्षा दे चुकी थी, और लेडी डाक्टर के पद की अधिकारिणी हो गई थी। हिन्दू-बालिका के लिए यह पद अब से पन्द्रह वर्ष पूर्व असाधारण था । वह जमीन पर पैर न रखती थी। उसके लिए पृथक् बगला रहने को, फिटन सैर करने को, सेवक खिदमत के लिए नियत किए गए थे। इतना आदर, इतना वैभव ही उस बालिका के लिए यथेष्ट था। वह गर्व से फूलकर धरती मे ठोकर मारती और समझती थी कि धरती उसकी चोट से हिल उठी है। लाला गोवर्धनदासजी उसके अभिवावक बन गए थे। सुना है, वे उसके पिता के मित्र थे। और, पिता ने पुत्री को उन्हीकी देख-रेख मे रहने का आदेश किया था। हम नहीं कह सकते कि देशराज को यह कन्या भूली या नहीं। बाह्याडबर, रूढ़ि और धर्म के पचडे मे प्रकृत प्रेम तो खो ही जाता है। अस्तु । ऐसी ही दशा में युवक देशराज जालधर जा धमके । इतना हम कह सकते है कि प्रकट कारण उनके वहा पहुचने का चाहे भी कुछ रहा हो, पर सच्चा कारण, जिसने इन्हे इतने शीघ्र वहा जाने को राजी कर लिया था, था एक बार उस रूप को देखना । उन होठो से निकलते हुए वाक्यो का सुधा-रस पीना और यदि सभव हो तो कर-स्पर्श करना। उन्हे पूर्ण आशा थी कि वह अपनी पुरानी प्रतिज्ञा दृढतापूर्वक दुहगएगी। परन्तु वहा हुआ क्या, यह सुनिए। दो घण्टे विद्यालय के दफ्तर मे बैठने के बाद प्रबन्धकर्ता महाशय बडी-सी पगड़ी सिर पर लपेटे और मोटे पट्ट का भहा- सा कोट पहने आए, और बोले-आप कहा से आए हे ? "मैं आगरा से आया हू।" "आपका नाम?" "मेरा नाम देशराज है।" “आप क्या चाहते है ?" "मै इन्दुकुमारी से मिलना चाहता हूं।" "आप उसके क्या लगते है ?" युवक झेप गया। क्या जवाब दे, कुछ भी न सोच सका।कुछ ठहरकर बोला- उससे मेरी मगनी हुई है। "फिर इस समय उससे आप क्यो मिलना चाहते है ?" "उससे कुछ खास बातें करनी है?"