पृष्ठ:बाहर भीतर.djvu/२१२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

२१६ कन्यादान "किस विषय पर?" युवक को क्रोध आ गया । उसने कहा-वह मैं आपको नहीं बता सकता। "क्यों?" "आपको कोई अधिकार नहीं।" "मैं उसका अभिभावक हूं, मुझे पूर्ण अधिकार है कि मैं किसी फालतू आदमी को उससे न मिलने दू।" "मैं फालतू आदमी नही हूं।" "यह मैं कैसे समझू?" युवक डाक्टर क्रोध के मारे हांफने लगे। बोले-आप जाकर मेरा नाम लीजिए। उनकी इच्छा मिलने की न होगी, तो मैं चला जाऊगा। "पर जब तक मैं अपनी तसल्ली न कर लू, उसे इत्तिला नही कर सकता।" "क्या वह कैदी है ?" "चाहे जो कुछ भी समझे।" "मैं उससे अवश्य मिलूगा।" “यहां आप नियम के विरुद्ध कुछ नहीं कर सकते।" "तुम्हारे नियम जहन्नुम मे जाए।" "अभी आप अहाते से बाहूर चले जाइए।" "क्या, मैं ?" युवक ने घूसा ताना। एक शिष्ट पुरुष ने कमरे मे प्रवेश करके कहा-मामला क्या है ? "यह महाशय मुझे अहाते से बाहर निकाल रहे है, शर्म नहीं आती। जब चंदा मांगने जाते है, भिखारी से ज्यादा बेगैरत, निर्लज्ज और ढीठ बन जाते है । हमारे ही रुपये से अहाता बनाकर हमें ही बाहर निकालते हैं-दो कौड़ी के टुकड़-गधे । अफसर बने है, धौस से बातें करते है, जैसे बाप का घर है।", युवक एक ही सांस मे कह गया। आगंतुक ने कहा-अजीज, मैं अधिष्ठाता हूं, मेरा नाम देवराज है । तुम चाहते क्या हो, मुझे बताओ। "मैं इन्दु से मिलना चाहता हूं।" "बिना इस बात का निश्चय हुए कि किसी कन्या से किसी युवक का मिलना उचित है-नही मिलाया जा सकता । या तो तुम उसके रिश्तेदार होते या..!" "मेरे साथ उसकी मंगनी हुई है।"