पृष्ठ:बाहर भीतर.djvu/२२६

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बाहर-भीतर , चप्पल थे। बाल बिखरे तो न थे, परन्तु बहुत टीमटाम से सवारे भी न थे। उसका वेश बिल्कुल सीधा-सादा था। हा, उसे उज्ज्वल और सोफियाना कह सकते हैं। उसने न नमस्ते किया, न हाथ जोड़े। वह सिकुड़कर पलग के पास भी खड़ी नही हुई, आकर धीरे से कुर्सी खीचकर उसपर बैठ गई। इसके बाद तनिक मुस्कराकर उसने कहा--कहिए, आप प्रसन्न तो है ? भई वाह ! यह कैसी नई-नवेली वधू ? मैने आख फाड़कर उसकी ओर देखा। देखते ही आखे जल उठी। वह न तो वैसी सुन्दर ही थी, और न उसका रंग ही गोरा था । मैं क्षणभर ही में अपने क्लास की सब युवतियो से उसका मिलान कर गया। भला कहा वे परियां और कहा यह ! मेरा हृदय तिलमिला उठा। मैंने ताने के तौर पर कहा-क्या आप ऊपारानी की कोई दासी हैं? क्या सदेश लाई हैं . . आप? “यही कि ऊषारानी के स्थान पर आप मेरा स्वागत-सत्कार करे।" “आप है कौन ?" "ऊषारानी मेरी दासी है।" "आपकी?" "जी हा, और उसका यह फैसला है कि मै उनके पति महाशय को अपना दास समझू । आप ही शायद उनके पति है ?" उस साधारण प्रतिभाहीन मुख से ऐसी करारी-चुटीली बात सुनकर मैं दंग रह गया । वह नई-नवेली की मुलाकात का पुराना डिजाइन हवा हो गया। मैं न गुस्सा कर सका, न मेरे मुह से कोई बात ही निकली। मै चुपचाप उस मुहज़ोर बालिका के मुस्कराहट-भरे, फड़कते होंठो को देखने लगा। उसे देखकर मैं खड़ा नही हुआ, उसका स्वागत नहीं किया, उसके साधारण रूप की अवहेलना की, इसके कारण उसकी आखो मे एक चमक-जो उन चुभती हुई तीखी बातों के साथ निकली थी-देखकर मैं उसके रुआब मे आ गया। मैं सोचने लगा : इसी तरह क्या स्त्रियो का आदर किया जाता है ? यही क्या मेरी शिक्षा और सभ्यता है ऊषा ने फिर कहा-समझे आप? क्या आपको श्रीमती ऊषारानी के आज्ञा- पालन मे कुछ आपत्ति है ? "कुछ भी नही !” अनायास ही मेरे मुह से निकल गया। "तब आप पलंग से खड़े हो जाइए। आपने एम० ए० तक शिक्षा पाई, उच्च ?