पृष्ठ:बाहर भीतर.djvu/२२७

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२३२ बाहर-भीतर ? सस्कृति के लोगो मे रहे, पर आपको इतनी तमीज़ न आई कि स्त्रियो का मान कैसे किया जाता है।" बाप रे, नई दुलहिन से डाट खाकर, मै सचमुच लज्जित-सा होकर उठकर खड़ा हो गया; पर फिर भी अपनी अकड़ तो कायम रखी। मैंने कहा-अब क्या करना होगा? उसने एक कुर्सी की ओर सकेत करके कहा--बैठिए, घबराते क्यो है ? यह खूब रही, नववधू को देख कर मै घबराता हू ! मैने कुर्सी पर बैठकर कहा-घबराता क्योहू वह खिलखिलाकर हस पड़ी। फिर उसने परीक्षा की, कालेज की, कालेज के जीवन की, भविष्य की, स्वास्थ्य की, न जाने क्या-क्या बातें करनी शुरू कर दी। मैं तो जैसे खो गया। उर्स रात्रि के धीमे प्रकाश में मैने देखा, मै किसी अत्यन्त स्नेही मित्र से—जो अत्यन्त बुद्धिमान, कुशाग्रबुद्धि, वाक्पटु और मृदुभाषी है- बातें कर रहा हूं। मेरा विद्रोह तो गायब हो चुका था । थोड़ी ही देर मे मैने डरते- डरते उसका हाथ पकड़कर कहा-ऊषारानी, मुझे क्षमा करो। वह मुस्कराकर मेरी ओर देखने लगी। मैंने फिर कहा-क्षमा करो देवी ! उसने फिर कहा--किस अपराध की क्षमा? मैंने कहा-मेरी आखे तुम्हें देखते ही जल उठी थी। मैने तुम्हारा बाहरी रूप देखना चाहा था। अब से कुछ मिनट पहले तक मैं नहीं जानता था कि स्त्री के भीतर एक और चीज़ रहती है । मैं तो कुछ और ही सोच रहा था । उसने हसकर कहा-एक गुड़िया-सी सुन्दर दुलहिन, जिसकी एक नाक, दो कान, एक मुह, दो आखें, सफेद चमड़ी, नन्हा-सा शरीर, यही न ? "लगभग यही, ! पर थोडा और भी कुछ।" "वह कालेज की संगिनियों का प्रदर्शन ?" मैं चौका, मेरे मन की बात यह कैसे जान गई ? वह मुस्कराने लगी। -ऊषा मुझे क्षमा करो। अपने इस दास को क्षमा करो। उसने कहा-दास को क्षमा कर सकती हू, पर पति को नही। वह धीरे से अपनी कुर्सी से उठी, और एक मुग्धा बालिका की तरह मेरी गोद में आ बैठी। उसके शिथिल बाहु मेरे गले में आ गए, मैं उस जीवन-सगिनी सखी को--जिसने मेरे विद्रोह को विद्रोह से विजय किया था इस प्रकार विजित देख फूला अग नही मैंने कहा