पृष्ठ:बाहर भीतर.djvu/२२८

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बाहर-भीतर २३३ समाया। मैंने उसे हाथों-हाथ उठाकर हृदय से लगा लिया। कुछ देर तक हम दोनो दुनिया को भूले बैठे रहे। उसने मेरे गले मे बांहे डालकर हसते-हंसते कहा-मैने तुम्हारे पिछले तीन वर्षों की सौ बातें पूछ डाली, पर तुमने मेरी एक भी नही पूछी। तो क्या मैं यह समझू कि तुम मेरी तरफ से बेफिक्र हो? मैं लज्जित हुआ। मैने कहा-प्यारी, तुमने तो आते ही युद्ध छेड दिया, और इस दास को ऐसा पछाड़ा कि मन सिट्टी-पिट्टी भूल गया। "अच्छा, लाओ, इस सुहाग-रात के उपलक्ष्य में मेरे लिए क्या लाए हो मैं बहुत कुछ लाया था-सोने की चेन, घड़ी, एक कीमती बनारसी साडी, एक-दो जड़ाऊ गहने, पर वे सब क्या इस महामहिमामयी, गौरवशालिनी पली के योग्य थे ?--मैंने लज्जित होकर कहा-तुम्हारे योग्य तो कुछ नही है ऊषा, देते लाज लगती है। ? "देखू तो।" उसने एक-एक वस्तु को देखा, हसी। उन्हें आदर और उछाह से पहना, फिर प्यार-भरी दृष्टि से मेरी ओर देखकर कहा-सुहागरात तो तुम्हारी भी है, कुछ मुझसे उपहार न लोगे? "मैंने तुम्हे पा लिया, अब और कुछ न चाहिए।" "मैंने भी तो तुम्हें पा लिया, फिर भी मुझे उपहार मिले ही । तुम्हारे लिए मैं भी कुछ लाई हू।" मैंने सोचा : राजासाहब ने कुछ रुपये दिए होगे, या कोई चीज़ । मैंने कहा- रहने दो, मुझे अब और कुछ न चाहिए। "हा, वह कुछ उतनी कीमती चीज़ नहीं है, पर वह मैं तुम्हारे लिए लाई है।' उसके मानी चेहरे पर फिर वही तेज और नेत्रों मे चमक उत्पन्न हो गई । मैने तो मेरी रानी, दो न, मै उसे पाकर कृतार्थ हो जाऊ। उसने धीरे से आचल से एक कागज निकालकर मेरे हाथ मे दे दिया। मुझे कौतूहल हुआ। क्या रायसाहब ने मुझे दान-पत्र दिया है ? रोशनी तेज करके देखा तो दंग रह गया। यह ऊषा के बी० ए० आनर्स में प्रथम श्रेणी में पास होने का सर्टिफिकेट था। मैंने सपने में भी नहीं सोचा था कि ऊपा इतनी उच्चशिक्षा प्राप्त है। मैं पागल - जल्दी से कहा- ?