पृष्ठ:बाहर भीतर.djvu/२३३

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२३८ विधवाश्रम है, न कोई आगे न पीछे । मैं अन्धी-धुन्धी बुढिका हू, इसकी कहा तक देख-भाल कर सकती है। घर में इसका मन नहीं लगता। सदैव द्वार पर खडी रहती है । कहती हू-सधवाओ जैसा बनाव-सिंगार क्या इसको रुचता है ? पर यह एक नही सुनती। आपकी मैंने तारीफ सुनी है, खराव औरतो को आप सुधारते है, उनकी रक्षा करते और उन्हे सन्मार्ग पर लाते है । महाराज, आप कृपा कर इस लडकी का उपाय कीजिए।" इतना कहकर उसने अपने पीछे सिकुड़ी खडी बालिका को धकेलकर आगे किया और माथा टेकने का आदेश दिया। वालिका आगे दो कदम बढकर ठिठक गई। बोली नही, न उसने माथा ही टेका । केवल एक बार भयभीत नेत्रो से मडली को देखा। एक क्षीण हास्य-रेखा उसके मुख पर आई और वह चुपचाप खडी धरती को निहारने लगी। तीनो आदमी उस शर्माई हुई बालिका को एकटक देखने लगे। मण्डली विच- लित-सी हो गई। गजपति ने कहा-बुड्डी मां, तुमने अच्छा किया इसे यहा ले आई। यहां इसकी हमजोलिया बहुत है । अच्छा, इसे जरा आने-जाने को कहो। क्यों जी, तुम्हारा नाम क्या है ? --इतना कहकर गजपति ने उसके कन्धे पर हाथ धर दिया। डाक्टर जी ने कहा-ठहरो, उसे सामने वाली कोठरी मे बैठने दो, मै इससे अभी बात करूगा। बालिकी तत्काल कोठरी की ओर चली गई। वृद्धा बैठी रही, राजा जगन्नाथ उसे उपदेश देने लगे। बालिका वास्तव में यहा की धूराघूरी देखकर घबरा उठी थी। वहा से वह जान बचाकर कोठरी मे भाग गई । और चाहे कोई न जाने, परन्तु स्त्रिया बदमाशो की पापदृष्टि को खूब पहचानती है। इसके बाद डाक्टर जी उठकर कोठरी मे घुस गए, दरवाजा उढ़का दिया । यह देखते ही गरीब बालिका सूख गई । वह वहा से उठकर बाहर को जाने की चेष्टा करने लगी। डाक्टर जी ने हाथ पकड़कर कहा-बेटी! डर क्या है, घबराने की बात नही। इतना कह वे कनखियो से देखने लगे। बालिका सिकुड़कर बैठ गई और उनकी बात की प्रतीक्षा करने लगी। डाक्टर जी ने कहा-तुम्हारा नाम क्या है ?