पृष्ठ:बाहर भीतर.djvu/२३४

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विधवाश्रम २३६ "चन्दन !" "बहुत सुन्दर नाम है । अच्छा, यह तो बताओ तुम्हारे मन में कभी किसी तरह की उमंग तो नही उठती ?" बालिका समझी नही । वह बडी-बड़ी आंखें उठाकर डाक्टर जी की ओर देखने लगी। “आह ! समझी नही, (कन्धे पर हाथ धरकर और पास खिसककर) अभी नादान बच्ची हो । मन के भाव समझती नही । खैर देखो, तुम चाहो तो यहां आश्रम मे रहो, चाहे कभी-कभी आया करो। कुछ रुयये-पैसे की जरूरत हो तो मुझसे कहो । देखो, भेद-भाव मत रखना । अब मैं तुम्हारा रक्षक हुआ। क्यो, हुअ' न? बोलो !" बालिका बिना हाथ-पैर हिलाए चुपचाप बैठी रही। उसके बदन पर पसीना आ रहा था। डाक्टर जी ने उसकी कमर मे हाथ डालकर अपनी ओर खीचते हुए कहा- जवाब तो दो! बालिका ने तिनककर कहा-आह ! यह क्या करते हैं, अपना हाथ खीच लीजिए। "क्रोध मत करो। जब मैं रक्षक हुआ तो जो पूछूगा बताना पड़ेगा, जो कहूंग' करना पडेगा, किसी बात मे उज्र न करना। देखो, तुम्हारी यह साड़ी कितनो पुरानी और गन्दी हो गई है । ये रुपये ले जाओ, नई ले लेना।" इतना कहकर डाक्टर जी ने पाच रुपये का एक नोट उसके हाथ परधर दिया। बालिका नोट देखकर घबरा उठी, ले या न ले -न समझ सकी। उसके मन मे नई साडी पहनने की लालसा जागरित हो उठी। वह उत्सुक होकर डाक्टर जी के सफाचट मुख को देखने लगी। डाक्टर जी ने कहा-नोट को सम्हालकर रख लो। जेब तो है न ? चोली मे रख लो, गिर न जाए । ठहरो मै रखे देता है। बालिका न रोष, न निषेध कर सकी। डाक्टरजी ने उसकी चोली में हाथ घुसेड दिया । एक पैशाचिक आवेश से डाक्टर जी का लाल चेहरा और भी लाल हो उठा ! बालिका घबराकर उठ बैठी, और उसने धडाम से किवाड खोल दिए। डाक्टर जी हड़बड़ाकर उठ बैठे। उन्होंने धीरे से कहा-अच्छा, बाकी बातें फिर .