पृष्ठ:बाहर भीतर.djvu/२३८

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विधवाश्रम २४३ 1 "और आश्रम हमने किसलिए खोला है?" "मैंने समझा था कि विधवाओं को शिक्षा मिलती है। रोटी-कपड़ा मिलता है, वे स्वावलम्बिनी बनाई जाती है।" "और तुम्हे यह नहीं मालूम कि उनकी शादियां भी होती है ?" "मैं समझती थी, जो शादी कराना चाहे उसीकी शादी होती होगी।" "बस यही गलती है । इस तरह यहां पछियो का बसेरा बसाया जाए तो आश्रम का दिवाला दो दिन मे निकल जाए। यहा तो नया माल आया-इधर से उधर चालान किया, आश्रम का भी खर्च निकला और तुम लोगो का भी भला हुआ।" "मैं अपना भला कर लूगी, तुम अपना खर्च ले लो और मुझे जाने दो।" "खर्च कहा से दोगी ?" "और कुछ मेरे पास नहीं, जो दो-चार गहने है उन्हें ले लो।" "लाओ, ये तो कोष मे जमा होंगे।" युवती ने गहने उतार दिए। उन्हे गजपति ने हाथ में लेकर कहा-हमने तार देकर तीन आदमी पजाब से तुम्हारे लिए बुलाए हैं । वे आज रात को आ जाएगे। एक तो आ भी गया है, अब यह तुम्हारी पसन्द पर है, जिसे चाहो पसन्द करो। इतना कह और बिना उत्तर की प्रतीक्षा किए, उसने उसे पीछे को ढकेल दिया। 'जब तक वह सम्हले, गजपति ने बाहर निकलकर सांकल चढ़ा दी और कहा-भागने की चेष्टा के भय से ऐसा किया गया है, बुरा न मानना । अभी विवाह को ना-नू करती हो, जब सुन्दर जवान देखोगी तो खुश हो जाओगी। दिनभर पड़ी- पड़ी सोच लो। इतना कहकर तीनों चल दिए। युवती भौचक-सी खड़ी रह गई। फिर वह जोर-जोर से किवाड़ पर हाथ मारने और चिल्ला-चिल्लाकर रोने लगी। 7 "देखो सावित्री, आज तुम्हारी शादी फिर निश्चित हो गई है। और इस बार भी तुम्हें वही चालाकी करनी होगी। तुम कुछ नई तो हो नही, सब बातें जानती हो।" "अब इस बार मुझे कहा जाना होगा?" "दूर नहीं, करनाल के पास एक कस्बे मे।" "हे ईश्वर, वहा मेरा दिल कैसे लगेगा?"