पृष्ठ:बाहर भीतर.djvu/२३९

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२४४ विधवाश्रम "दिल की एक ही कही, दस-पन्द्रह दिन नहीं काट सकती हो?" "माल-मलीदे तो खूब मिलेगे?" "खूब !" 3 "और वह उल्लू ?" "वह एक बूढा खूसट है, खूब बनाना।" "कुछ झगडा-बखेडा तो खडा न होगा?" "झगडा क्या होगा?" "खैर, मुझे क्या मिलेगा?" "सैर-सपाटा, माल-टाल और बढिया साड़ी, जूता, मोजा और तीन-चार अदद नये गहने।" "और रुपये ? रुपये इससे न जमा कराए जाएंगे?" "पांच सौ तो बधी बात है, उसका क्या कहना !" "पर इस बार सब रुपये मै लूगी।" "वह कैसे हो सकता है, पहले की भांति अद्धम-अद्धा पर सौदा होगा।" "अच्छी बात है, मुझे मजूर है।" "तब नहा-धोकर सिगार-पटार कर लो । उल्लू को सामान का पर्चा उतरवा दिया है, लेकर ता ही होगा। साडी तुम स्वयं पसन्द कर लेना।" उपर्युक्त बातचीत विधवाश्रम की अधिष्ठात्री देवी और एक युवती मे हो रही थी। बातचीत करके अधिष्ठात्री जी चली गई और युवती कुछ सोचकर हस पडी उसने उगली पर गिनकर आप ही कहा-एक-दो-तीन ! यह तीसरा उल्लू है।।इसमे भी खूब मजा है। थोड़ी देर तक वह अपने भूतकाल को सोचने लगी। वह वर्तमान जीवन से उसका मुकाबला करने लगी-क्या यह अच्छी बात है ? पति के घर में कैसी सुखी थी ! जरा-सी बात पर लड़कर निकल भागी, और ये दुष्ट मुझे फांस लाए । अब यहा अजीब शादियां होती हैं, रुपया गाठ मे करो, दुल- हिन बनो, ब्याह करो और फिर चकमा देकर भाग आओ। फिर ब्याह कर लो। पकड़ी जाओ, तो कह दो कि जुल्म करता है, मारता है । जय गगाजी की ! युवती फिर जरा हस दी। फिर कुछ सोचने लगी। थोड़ी देर में उसने एक महरी को पुकारकर कहा-ज़रा बलवन्त को तो बुला दे। बलवन्त एक तीस वर्ष का हट्टा-कट्टा, किन्तु मैला-कुचला आदमी था। उसकी