पृष्ठ:बाहर भीतर.djvu/२४२

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विधवाश्रम २४७ "वह तो दाखिला फीस थी महाशय जी !यह तो आश्रम का नियम है कि जब कोई विवाहार्थी आए तो फीस दाखिल लेकर तब विवाह की चर्चा चलाई जाए।" "मगर महाशय जी, ये दो सौ रुपये तो भार मालूम देते है।" "यह आप क्या कहते है ? सस्था को देने मे आप इधर-उधर करते हैं। सोचिए, यदि सस्था न होती तो कितनी देविया धर्म-भ्रष्ट होती, और आपकी सेवाए भी कैसे हो सकती थी ?" अधिष्ठाता जी, उर्फ पिता जी और वर में उपर्युक्त घिस-फिस बड़ी देर तक होती रही और तब उन्होने दो सौ के नोट गिन दिए। इसके बाद ही, स्वस्ति- वाचन, शान्ति-प्रकरण का जोर-शोर से पाठ हुआ। अग्नि प्रज्वलित हुई, दुलहिन आई और पवित्र वैदिक रीति से विवाह कार्य सम्पन्न हुआ। विवाह होने पर अधिष्ठाता जी बोले-पन्द्रह रुपये और दीजिए ! "यह किसलिए?" "पाच पण्डित जी की विवाह-दक्षिणा; पांच की साडी अधिष्ठात्री देवी के लिए और पांच की मिठाई सब लड़कियों के वास्ते।" कुछ अनमने होकर पन्द्रह भी दे दिए। इसके बाद उन्होने घड़ी देखकर कहा- भब आप विदा की तैयारी करा दीजिएगा। गाड़ी जाने में अधिक देर नही है पर अभी तोप्रीति-भोज होगा।" "बस प्रीति-भोज रहने दीजिए।" "ऐसी जल्दी नही। सब तैयार है। भला बिना भोजन विवाह कैसा?" "प्रीति-भोज का आयोजन हुआ। पुरोहित, अधिष्ठाता और अल्लम-गल्लम, जो वहा उपस्थित थे, सभी बैठे। भोज समाप्त होते ही हलवाई ने बिल अधिष्ठाता जी को दे दिया। उन्होने एक नज़र डालकर वर महाशय की तरफ संकेत करके कहा-आपको दो। वर महाशय ने घबराकर कहा-अब यह क्या है ? "अभी प्रीति-भोज हुआ न, उसीका बिल है।" “यह भी मुझे चुकाना पड़ेगा ?" "वाह महाशय जी, यह खूब कही ! विवाह आपका होगा तो क्या बिल और कोई चुकाएगा?" "इसका पेमेण्ट तो आश्रम को करना चाहिए।" 8 -