पृष्ठ:बाहर भीतर.djvu/३०

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३० बाचिन के समान समस्त भारत के सम्राट् की पौत्री शाहजादी गुलबानू थी। केवल क्षण-भर ही वह युवक उस अतिदुर्लभ मुख की ओर देखने का साहस कर सका । उसने उठने की चेष्टा की, परन्तु मानो उसके शरीर का सत निकल गया था। वह गिर पडा, गिरे ही गिरे उसने जरा बढकर अपना मस्तक शाहजादी के कदमों पर रख दिया । शाहजादी के जूतो मे लगे हीरे युवक के मस्तक पर मुकुट की तरह दिप उठे। शाहजादी ने मानो फूल बखेर दिए । उसने कहा-कल के हादिसे का मुझे बहुत रंज है, पर मैं समझती हू, अब तुम बहुत अच्छे हो। मैंने पालकी से तमाम माजरा देखा था। मगर कर क्या सकती थी ! दादाजान से आते ही शिकायत कर दी थी। युवक ने जरा ऊंचा उठकर शाहज़ादी का आंचल आंखों से लगाया और बार- बार जमीन चूमकर कहा- हुजूर खुदावन्द शाहजादी, कल अगर हुजूर की पालकी की खाक न नसीब होती तो आज यह दिन कहा? जहापनाह ने इस नाचीज़ गुलाम को निहाल कर दिया। ताबेदार ताउम्र इन कदमो का नमकहलाल रहेगा। शाहजादी कुछ न कहकर धीरे-धीरे चली गई, परन्तु उसके सास की सुगन्ध वहां भर गई थी, और उसीके प्रभाव से युवक के घाव भर गए थे। वह उस स्थान को, जहां शाहजादी के कमल-पद छू गए थे, अपनी छाती से लगाकर बदहवास पड़ रहा । उस मूर्ति को चाहे क्षण-भर ही वह देख सका था, पर वह उसके रोम- रोम में रम गई थी। पर दुनिया के पर्दे में कौन-सा ऐसा मर्द-बच्चा था जो फिर उसे एक बार देख लेने का हौसला भी कर सकता ? बारह साल बीत गए । सन् ५७ की २४वीं मई थी। गदर की आग धू-धू करके जल रही थी। चिनगारिया आसमान को छू चुकी थीं। निकल्सन ने दिल्ली पर घेरा डाल रखा था। भाग्य की रेखा के बल पर बूढ़े और लाचार बादशाह बहादुरशाह ने बागियो का साथ दिया था। क्षण-क्षण में बागी हार रहे थे। अग्रेजी तो कश्मीरी दरवाजे पर गरज रही थी। लाहौरी दरवाजा सर हो चुका था। फतहपुरी मस्जिद के सामने अग्रेजी घुडसवार और बागियों की लाल होली खेली जा रही थी। लाशो के ढेर में से अधमरे सिपाही चिल्ला रहे थे। अंग्रेज बरावर