पृष्ठ:बाहर भीतर.djvu/३२

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वावचिन . इसके बाद उन्होने अपनी जड़ाऊ सन्दूकची मगाई और परिवार के सब लोगों को बुलाकर एक-एक मुट्ठी हीरे सबको देकर कहा-खुदा हाफिज़ ! किले से निकलकर बादशाह सीधे निजामुद्दीन गए । उस वक्त उनके मुख- मण्डल की आभा उतरी हुई थी। कुछ खास-खास ख्वाजासरा, कहार और इने- गिने शुभचिन्तको के सिवा कोई साथ न था। चिन्ता और भय से वे रह-रहकर कांप रहे थे। उनकी सफेद दाढ़ी धूल से भर रही थी। बादशाह चुपचाप जाकर सीढ़ियो पर जाकर बैठ गए। गुलामहुसेन चिश्ती सुनकर दौड़ आए। बादशाह उन्हे देखते ही खिलखिला- कर हंस पड़े। चिश्ती साहब ने पूछा-खैर तो है ? "खैर ही है, मैंने तुमसे पहले ही कह दिया था कि ये बदनसीब गदरवाले मनमानी करनेवाले है। इनपर यकीन करना बेवकूफी है। ये खुद डूबेंगे और हमें भी डुबाएगे। वही हुआ, भाग निकले। मुझे तो होनहार दिखाई दे गई थी कि मैं मुगलों का आखिरी चिराग हूं। मुगलो के तख्त का आखिरी सास टूट रहा है, कोई घड़ी-भर का मेहमान है। फिर खून-खराबी क्यो करू ? इसीलिए किला छोड़कर चला आया। मुल्क खुदा का है, जिसे चाहे दे, जिसे चाहे ले । सैकड़ों साल तक हमारे नाम का सिक्का चला । अब हवा का रुख कुछ और ही है । वे हुकूमत करेगे, ताज पहनेगे । इसमे अफसोस क्यो? हमने भी तो दूसरो को मिटाकर अपना घर बसाया था ! हां, आज तीन दिन से खाना नसीब नहीं हुआ है। कुछ हो तो ले आओ?" चिश्ती साहब ने कहा-सिर्फ बाजरे की रोटी और सिर्के की चटनी है । हुक्म हो तो हाजिर करू। "वही ले जाओ।" बादशाह ने शान्तिपूर्वक एक रोटी खाकर और पानी पीकर कहा-बस, अब हुमायू के मकबरे मे चला जाऊंगा, वहां जो भाग्य में होगा वह होगा। हुमायू के मकबरे में हडसन और इलाहीबख्श ने आकर बादशाह को गिरफ्तार करके रंगून भेज दिया। तीन वर्ष व्यतीत हो गए। दिल्ली में अग्नेजी अमल जमकर बैठ गया था। लालकिले पर यूनियन जैक फहरा रहा था। फांसियों की विभीषिकाओं ने नगर