पृष्ठ:बाहर भीतर.djvu/३३

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बावचिन और ग्राम की जनता के मन मे दहल उत्पन्न कर दी थी। भेड़ की तरह दब्बू चुप- चाप अग्रेजो के विधान को अटल प्रारब्ध की तरह देख और सह रहे थे । इलाही- बख्श के पास बादशाही बख्शीश ही बहुत थी, अब अग्रेजी जागीरों और मेहर- बानियो ने उन्हे आधी दिल्ली का मालिक बना दिया था। सरकारी नीलाम में मुहल्ले के मुहल्ले उन्होने कौड़ियों मे पाए थे। उनकी बड़ी भारी अट्टालिका खड़ी मनुष्य के भाग्य पर हस रही थी। सन्ध्या का समय था। अपनी हवेली के विशाल प्रागण मे तख्त के ऊपर बढिया ईरानी कालीन पर मसनद के सहारे इलाहीबख्श बैठे अम्बरी तमाखू पी रहे थे, दो-चार मुसाहिब सामने अदब से बैठे जी-हुजूरी कर रहे थे। मियांजी को, मालुम होता है, बचपन के दिन भूल गए थे। वे 'बहुत बढ़िया अतलस के अगरखे पर कमख्वाब की नीमास्तीन पहने थे। धीरे-धीरे अन्धकार के पर्दे को चीरती हुई एक मूर्ति अग्रसर हुई। लोगों ने देखा, एक स्त्री-मूर्ति मैला और फटा हुआ बुर्का पहने आ रही है। लोगों ने रोका मगर उसने सुना नही। वह चुपचाप मिया इलाहीबख्श के सम्मुख आ खड़ी हुई। मिया ने पूछा- क्या चाहती हो? "पनाह !" "कौन हो?" "आफत की मारी !" "अकेली हो?" "बिलकुल अकेली !" "कुछ काम करना जानती हो?" "बावर्ची का काम सीख लिया है !" "तनख्वाह क्या लोगी ?" "एक टुकड़ा रोटी !" बहुत महीन, दर्द-भरी, कम्पित आवाज मे इन जवाबों को सुनकर मियां इलाहीबख्श सोच में पड़ गए । थोडी देर बाद उन्होने नौकर को बुलाकर उस स्त्री को भीतर भिजवा दिया। उस दिन उसीको खाना बनाने का हुक्म हुआ। मियां इलाहीबख्श दस्तरखान पर बैठे। दोस्त-अहबाबों का पूरा जमघट था। तब तक दिल्ली मे बिजली-तारों से नहीं बांधी गई थी। सुगन्धित मोमबत्तियां शमादानों मे जल रही थी। ' .