पृष्ठ:बाहर भीतर.djvu/४०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

अबुलफजल-वध - महाराज ने अपनी पगड़ी शाहजादा को दी। दोनों एक बार फिर गले मिले। अब काम की बात का परामर्श होने लगा। धीरे-धीरे मलीम ने दिल की गांठ खोल दी। कहा, "महाराज, आप जानते है, मेरा परम शत्रु कौन है ?" "कौन?" "वह बूढ़ा बाघ, वह शेख ! "कौन शेख ?" "वह पाजी पाखडी अबुलफजल, जो आलिम कहाता है, और सिपहसालार से भी ऊंचा रुतवा रखता है।" "शेख क्या कहते है ?" "बादशाह सलामत को मेरे विरुद्ध उसीने भडकाया है। वह मुझे शराबी, निकम्मा और गुनहगार समझता है । महाराज, वह गुलाम बादशाह सलामत की दाढी का बाल हो रहा है ।" सलीम कुछ देर चुप रहे। पर मानो उनका मन बेचैन हो रहा था, कुछ बात थी, जो निकलना चाहती थी। महाराज चुपचाप ये उतार- चढ़ाव देख रहे थे। सलीम ने फिर कहा, “महाराज, वह फिर दक्षिण से आ रहा है, दक्षिण को फतह करके वह इस बार बादशाह के और भी मुंह लग जाएगा। वह मेरा इस बार नाश कर डालेगा।" इतना कह सलीम ने आतुर होकर महाराज का हाथ जोर से पकड़कर कहा, "महाराज, मेरी मदद कीजिए, दोस्ती निभाइए। सलीम को आप नाशुकरा न पाएगे।" "शाहजादा क्या चाहते है ?" “यही कि वह आने न पावे, बादशाह से मिलने भी न पावे। उसे आप कैद कर लीजिए या मार डालिए।" "और यदि वह युद्ध न करे ?" "वह बड़ा मगरूर और गुस्सैल है, जरूर लड़ पड़ेगा।" "परन्तु शाहजादा, जरा सोचिए, यह काम क्या मुनासिब होगा? बादशाह सब बात जानेंगे, तब" "आह महाराज, आप भी मुझे नाउम्मीद करेंगे?" "शाहजादा, यह काम अच्छा नतीजा न लाएगा।" "यह काम तो होना ही चाहिए।"