पृष्ठ:बाहर भीतर.djvu/४१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

अबुलफज़ल-वध ४१ "आप सब आगा-पीछा सोचिए तो।" "महाराज, बुन्देलखण्ड के महाराज, वह जब तक जिन्दा है, तब तक मैं मरा हुआ हू।" महाराज सोच में पड़ गए। सलीम ने कहा, "महाराज, मेरा तख्त, इज्जत, आजादी सब इसी काम पर है। उसे रोकिए, कैद कीजिए या मार डालिए। वह मेरे कलेजे का काटा है, उसे निकालिए । देखिए, यह पगडी यदि आपकी दी हुई न होती, और इसकी यदि मैं इज्जत न करता, तो इसे अभी आपके कदमों पर धरता। महाराज, दोस्ती का हक अदा कीजिए।" महाराज ने गहरी सास ली। उन्होने कहा, "शाहजादा, मैं आपकी इच्छा पूरी करूगा । पर मुझे अभी जाना होगा।" सलीम फड़क गया। उसने अपना सुनहरी काम का जिरह-बख्तर महाराज को पहनाया, अपनी जड़ाऊ तलवार उनकी कमर में बाधी, और सिरोपाव देकर सैयद मुजफ्फरअली के साथ विदा कर दिया। शेख अबुलफजल जल्दी-जल्दी कूच करता बढ रहा था । बादशाह सलामत का हुक्म था कि वह जल्दी से जल्दी उनसे मिले । वास्तव में बादशाह कोशेख की फौज और उसकी अक्ल की भी बहुत जरूरत थी। नरवर जाकर महाराज वीरसिंहदेव ने डेरा जा जमाया। उनके साथ बहुत ही कम सेना थी, परन्तु अब और कुछ हो भी नही सकता था । वीरसिंहदेव ने शेख से कहला भेजा, "मै आपसे मुलाकात किया चाहता हूं, बिना मुझसे मुलाकात किए आप आगे नही बढ़ सकते।" अबुलफज़ल क्रोध में भभक उठा। एक तुच्छ राजा का इतना साहस ! गुस्से मे भरकर कहा, "मेरा घोड़ा ले आओ। मै अकेला ही उससे मुलाकात करूंगा, और उसका सिर काट लाऊगा। उसकी ऐसी हिमाकत !" एक पान सरदार ने कहा, "जनाब, बेहतर है, इस वक्त लड़ाई-झगड़े को बचा जाए, बादशाह सलामत का हुक्म तो आपपर जाहिर ही है।" शेख ने घोड़े की रास खीचकर कहा, "मैंने दखिन फतह किया है। अब इस तरह चाहे जो भी कोई आकर मेरा रास्ता रोकेगा, और जबरदस्ती मुलाकात करेगा, तो हो चुका । रास्ता छोड़ो।" बूढे शेख ने दर्प से गर्दन तानी और घोड़े को एड लगा दी।