पृष्ठ:बाहर भीतर.djvu/४४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

प्रबुद्ध अमिताभ बोधिसत्त्व गौतम बुद्ध की प्रभाव-सत्ता की समता विश्वमानवों में केवल ईसा कर सकता है, वह भी आंशिक | तिसपर गवेषणाएं ऐसी है कि कहा जाता है-ईसा बौद्ध शिष्य है | गौतम बुद्ध ने ईसा से छः सौ वर्ष पूर्व भारत में जन्म लेकर जिस धर्म चक्र का प्रवर्तन किया वह विश्व का सर्वप्रथम सर्वसभ्य विश्वधर्म था | सारे संसार की सभ्य, अर्धसभ्य जातियो को उसने संयम, प्रेम, त्याग और अहिसा का संदेश दिया और जिस काल सामन्तशाही तथा स्वेच्छा- जीवन ही रूढिवाद बना हुआ था, धर्म और जीवन को उसने व्यावहारिक और सरल रूप दिया । मनुष्य जाति को उसने वह दिव्य चक्षु दिया जिससे वह शानावलोकन कर अपना और औरो का भला कर सके । प्रस्तुत कहानी में उसी दिव्यात्मा के जीवन-रेखाचित्र भाव-ध्वनि मे अंकित है । यह कहानी सन् १९२६ में लिखी गई थी और इसके लिखने में नौ माह लगे थे। उन दिनो हिन्दी में बौद्ध साहित्य का अध्ययन विरल था और आचार्य के साहित्य-प्रांगण में प्रवेश का भी प्रभात था । इस दृष्टि से कहानी में उदीयमान भावी महान साहित्यकार के दर्शन होते है । कहानी में भाव कल्पना और मानसिक धात- प्रतिघात का प्रभावशाली और गम्भीर प्रदर्शन है तथा कथनोपकथन-शैली में सतेज प्रवाह है जो भावों और विचारों के अद्भुत एकत्व का प्रकटीकरण करता है-कहानी में महाप्राण बुद्ध के अन्तर्द्वन्द्व को साकार किया गया है | वृद्ध महाराज शुद्धोदन विशेष प्रसन्नवदन दिखाई पड़ रहे थे। वे प्रासाद के भीतरी अलिन्द में एक स्फटिक मणि की पीठ पर बैठे थे। उन्होंने सम्मुख कुछ दूर पर खड़े हुए प्रतिहार को पुकारकर कहा-अरे ! देख तो, युबराज सिद्धार्थ अभी मृगया से लौटे या नहीं? प्रतिहार ने आगे बढ़ और धरती पर बल्लम टेककर कहा-परम परमेश्वर, परम वैष्णव, महाभट्टारकपादीय महाकुमार अभी-अभी मुगया से लौटे हैं, और वे वायुमण्डप में विश्राम कर रहे हैं। . ४४