पृष्ठ:बाहर भीतर.djvu/४८

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४८ प्रबुद्ध रही थी और झुक रही थी; न जाने अविकसित यौवन के भार से अथवा लज्जा के भार से। वे सम्मुख खड़ी होकर भूमि पर दृष्टि गड़ाए पद-नख से धरती पर बिछे स्फटिक-प्रस्तर पर रेखा खीचने का व्यर्थ प्रयास कर रही थीं। कुमार चित्रलिखित-से देखते रह गए। वे जागरित भी प्रसुप्त-से थे। कुमार के निकट खड़े अमात्यवर ने कहा-राजनन्दिनी को भाण्ड प्रदान करोआयुष्मन् । कुमार ने घबराकर इधर-उधर देखा और अस्त-व्यस्त स्वर में कहा-शुभ्रे ! तुमने अति विलम्ब किया, भाण्ड तो सभी वितरण हो चुके । राजनन्दिनी क्षण-भर उसी तरह खड़ी रही। फिर उन्होने ऋतु प्रणाम करके लौटने का उपक्रम किया। कुमार असयत होकर आगे बढ़े और कण्ठ से मणिमाला निकालकर उन्होंने कुमारी के गले में डाल दी। कुमारी ने दृष्टि उठाकर कुमार के प्रदीप्त स्वर्णमुख की ओर देखा। वे पत्ते की तरह कापने लगी और उनका मुख प्रस्वेद से भीग गया। कुमार जड़वत् खड़े थे। हठात् महामात्य ने शख-ध्वनि की। क्षण-भर मे भुशुण्डि- काए गर्ज उठी। उसके बाद ही विविध वाद्य-ध्वनि से राजप्रासाद गुजायमान हो गया। कुमार ने विचलित होकर कहा-आर्य ! यह क्या हुआ? पर उन्होने देखा, कक्ष मे वे है और पुण्य-भार से झुकी हुई लतिका के समान राजनन्दिनी यशोधरा हैं। उन्होने साहस करके कहा-राजनन्दिनी क्या प्रतिदान की अभिलापा रखती है ? कुमारी के अधरोष्ठ में एक क्षीण हास्य-रेखा और कपोलो पर लाली आई और गई। उन्होंने नतजानु होकर महाराजकुमार को अभिवादन किया और उसके बाद वहां से चली गई। क्या हम प्रेम की व्याख्या करें ? उस प्रेम की, जहां शरीर-सम्पत्ति प्रेम का माध्यम नही है; जहा केवल प्राणों में प्राणो का लय है; जो नेत्रपटल पर नहीं तोला जाता; केवल आत्मा जिसमे विभोर होती है, जो जीवन से मृत्यु तक और मृत्यु से परे भी वैसा ही पारिजात-कुसुम की तरह अक्षय विकसित रहता है; वासना का यहा सम्पर्क नही; भोग और तृप्ति का यहां प्रसग नही; अभिलाषा और अरुचि दोनों ही यहा नहीं ; जहा सुख नहीं, आनन्द है; जहा कुछ भी प्राप्त करने की अभिलाषा नहीं-सब कुछ प्राप्त है। इस पृथ्वी-तल पर दाम्पत्य जीवन बा-३ .