पृष्ठ:बाहर भीतर.djvu/५६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

प्रबुद्ध सत्य को पराकाष्ठा तक पहुंचाना। जिस प्रकार सूर्य सब ऋतुओं में स्थिर होकर अपने नियमित मार्ग पर चलता है, उसी प्रकार तुम भी सत्य-पथ पर अटल रहना। तुम 'बुद्ध' होगे, तुम लक्षावधि मनुष्यो की बुद्धि को शुद्ध करोगे, तुम जगत् के पथ- प्रदर्शक होगे। सिद्धार्थ ने देखा, महापुरुष यह कहते-कहते अन्तर्धान हो गए। वे उठ खडे हुए। उन्होने कहा-मैंने सत्य का साक्षात् कर लिया। मै अव बन्धनों को तोडूंगा। मैं बुद्ध-पद प्राप्त करूंगा। वे धीरे-धीरे गम्भीर चिन्तन करते हुए अलिन्द की ओर लोटे। माता और पुत्र सुख-नीद मे बेसुध सो रहे थे । गोपा के अरुण अधर पर हास्य की रेखा फैल रही थी, और उनके बीच कुन्दकली के समान दात चमक रहे थे। वह किस सुख-स्वप्न को देख रही है ?---कुमार क्लान्त भाव से खड़े-खड़े यही सोचने लगे, गोपा का एक हाथ शिशु के वक्ष पर था। उस सुगन्धित कक्ष मे शिशु का छोटा किन्तु अति मनभावन मुख दीप्त हो रहा था। सिद्धार्थ का हृदय भर आया । उन्होंने प्रण किया . मै सकल्प पर स्थिर रहूंगा। फिर भी उनके नेत्रो से अश्रुधारा बह चली। वे बोले--और यह शोकावेग कितना दुर्धर्ष है ? इस धारा के वेग को रोकना कितना कठिन है ? कुमार आगे बढ़कर शय्या के पास घुटनों के बल बैठ गए । एक बार उन्होंने शिशु का मुह चूमने का उपक्रम किया, पर जागने के भय से वे वैसे ही बैठे रहे । गोपा की सुख-निद्रा पर उनकी दृष्टि थी। अश्रु वेग से उमड़ रहे थे। अन्त में उन्होने हृदय में वह साहस सचित किया जो पृथ्वी पर कभी किसी तरुण ने नही किया था। वे धीरे से उठे। उन्होने दोनों हाथो की मुट्ठी बांधकर आकाश में स्तब्ध तारागणों की ओर देखा, और फिर एक दृष्टि गोपा के स्निग्ध यौवन और शिशु के अज्ञात मोह पर डाली और चल दिए। पृथ्वी पर अन्धकार छा रहा था। उन्होंने फाटक पर आकर देखा, चन्न उपस्थित है। "चन्न, क्या तुम जागरित हो ?" "परम परमेश्वर महाभट्टारकपादीय युवराज की जय हो !" "चन्न, एक घोड़ा तो ले आओ।" "जो आज्ञा।"