पृष्ठ:बाहर भीतर.djvu/५९

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प्रबुद्ध ५६ है, जिह्वा से रस लेता है, आंख से देखता और कान से सुनता है।" "हे विद्वानो ! आत्मा की मुक्ति क्या है ?" जिस प्रकार पक्षी पिजरे से छूटकर स्वतन्त्रता प्राप्त करता है, उसी प्रकार आत्मा सब बन्धनो और उपाधियों से छूटने पर मुक्त हो जाता है।" "परन्तु क्या उष्णता अग्नि से भिन्न है ? मनुष्य रूप, रस, वासना, संस्कार, बुद्धि, चित्त आदि का संघात है; यही सघात तो 'मै' है; वही 'मैं' तो आत्मा है। तब वह भिन्न सत्ता कैसे हुई ? और जब तक वह 'अह' शेष है, तब तक तुम्हारी वास्तविक मुक्ति कदापि नही हो सकती।" "परन्तु मुनि ! क्या तुम अपने चारो ओर कर्म-फल को नही देखते ? वह कौन-सी बात है जिसने मनुष्यो के आचार, विचार, अधिकार, जाति और वैभव मे भिन्नता उत्पन्न कर दी है ? वह कर्म-फल ही तो है।" "कर्म-फल तो है ही, पर आत्मवाद का आधार क्या है ? संसार में कोई काम, वस्तु, फल या विचार नही हो सकता, यदि उसके पूर्व उसका कारण विद्यमान न हो। किसान जो वोएगा, फसल पर वही काटेगा। परन्तु 'अहं' की भिन्न सत्ता और उसका शरीरोत्तर गमन इसका प्रत्यक्ष प्रमाण क्या है ? क्या मेरी व्यक्ति-विशेषता प्रवृत्ति और मन-दोनों का संघात नही है ? क्या मेरे व्यक्ति-वैशिष्ट्य मे शारी- रिक और मानसिक दोनो शक्तिया सम्मिलित नहीं हैं ? यदि किसी मनुष्य के अन्दर से भूख-प्यास, चलना-फिरना, रोना-हसना आदि निकाल दिए जाए तो फिर उसकी मनुष्यता की क्या सार्थकता रह गई ? उन प्राकृत और दैहिक बातो के बिना मनुष्य यथार्थ मे क्या है ? जिस प्रकार कल का 'मैं' आज के 'मै' का पूर्वज है, और कल के 'मैं' ने आज के 'मैं' मे जन्म लिया है, एव आज का 'मैं' कल के 'मैं' मे फिर जन्म लेगा, उसी प्रकार पूर्व-जन्मों का अनादि प्रवाह चल रहा है।" "हे मुनि ! तुम अभी मूर्ख हो।" "हे विद्वानो! तुम अभी मनन करो।" कुमार सिद्धार्थ वहां से चल दिए। उस बिल्व-वन में पाच तपस्वी कठोर तप कर रहे थे। मुनि सिद्धार्थ ने भी तप करना शुरू किया। छः वर्ष के कठोर तप से उनका शरीर सूखकर लकडी के समान हो गया, वे मृतप्राय हो रहे थे, परन्तु उन्होने सोचा-खेद है कि इन उपवासों और व्रतो से मुझे कुछ भी शान्ति नही मिली। यह सब मिथ्या है । वे उठे, उन्होने स्नान किया, परन्तु दुर्बलता के कारण गिर पड़े। -