पृष्ठ:बाहर भीतर.djvu/६३

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प्रबुद्ध ! चाहिए। यह भावना जितनी प्रौढ़ होगी उतना ही निर्वाण-पद निकट होगा। यही बौद्ध-धर्म है। बुद्ध जब उपदेश देकर शान्त हुए तब सम्राट् ने नतमस्तक होकर कहा- भगवन् जब मैं राजकुमार था तब पाच भावनाएं मेरे मन में थी : (१) मैं राजा होऊ, वह पूरी हुई; (२) पवित्रात्मा बुद्ध मेरे ही शासन-काल मे मेरे राज्य मे पधारें, वह भी पूरी हुई; (३) मैं उनकी सेवा मे उपस्थित होकर उनका सत्कार करूं, वह भी पूर्ण हुई; (४) मैं भगवान का पवित्र उपदेश सुनू, वह भी पूरी हुई ; (५) मैं भगवान के धर्म को समझ सकू, वह भी पूर्ण हुई। प्रभो ! आपका सत्य महान है । आप उस बात को स्थापित करते है जो अब तक अस्त-व्यस्त रही है। आपने उसे व्यक्त किया जो अब तक अव्यक्त था । आपने उन्हे मार्ग बताया जो अब तक भटके थे। आप अन्धकार में पडे हुओं के लिए दीपक जलाते है। आज मैं बुद्ध की शरण लेता हूं; संघ की शरण लेता हूं; धर्म की शरण लेता हूं। बुद्ध ने कृपा-दृष्टि से सम्राट् को देखा और समस्त उपस्थित मण्डल बुद्ध-धर्म में दीक्षित हो गया। कपिलवस्तु मे उल्लास था, पिता का आतिथ्य स्वीकार करने भगवान बुद्ध सात वर्ष बाद लौटे है । महाराज शुद्धोदन अपने मन्त्रुिगण-सहित स्वागत को आए। वे अपने पुत्र के तेज और सौन्दर्य को दूर से देख गद्गद हो गए। उन्होने मन ही मन कहा-निस्सन्देह यह मेरा पुत्र है । कुमार सिद्धार्थ का ऐसा ही रूप-रग था। परन्तु यह महामुनि अब सिद्धार्थ नही रहा । वह बुद्ध है, पवित्रात्मा है, सत्य का स्वामी और मनुष्यों का शिक्षक है। वे रथ से उतर पड़े और आनन्दात्रु बहाते हुए बोले-आज सात वर्ष बाद मैने तुम्हे देखा है । क्या तुम जानते हो कि तुम्हे देखने की मुझे कितनी इच्छा थी? प्रणाम करके बुद्ध पिता के पास बैठ गए। राजा के जी मे आया कि उनका नाम लेकर पुकारें, पर साहस न हुआ। वे मानो मन ही मन कह रहे थे-पुत्र सिद्धार्थ ! आ, और पिता के पास पुत्र की भाति रह । अन्त में उन्होने कहा- मैं यह सारा राजपाट तुम्हे सौपना चाहता था; पर देखता हू, राज्य को तुम तुच्छ समझते हो। बुद्ध ने कहा -पिता! आपका हृदय प्रेमपूर्ण है, पर आपका जितना प्रेम मुझ