पृष्ठ:बाहर भीतर.djvu/६९

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भिक्षुराज && साथ बातचीत करना सरल न था। अन्तत पीछे का भू-भाग शीघ्र ही गम्भीर अन्धकार में छिप गया । कुमारी संघमित्रा ने एक लम्बी सांस खीचकर उधर से प्रांखे फेर ली। एक बार बहन-भाई दोनों की दृष्टि मिली। इसके बाद महाकुमार ने उसकी ओर से दृष्टि फेर ली। एक व्यक्ति ने विनम्र स्वर में कहा-स्वामिन ! क्या आप बहुत ही शोकातुर दूसरा व्यक्ति बीच मे ही बोल उठा . "क्यों नही, हम अपने पीछे जिन वनस्थली और दृश्यो को छोड़ आए है, अव उन्हे फिर देखने की इस जीवन में क्या आशा है ? और, अब आज जिन मनुष्यो से मिलने को हम जा रहे है उनका हमें कुछ भी परिचय नही है। उनमे कौन हमारा सगा है ? केवल अन्तरात्मा की एक बलवती आवाज़ से प्रेरित होकर हम वहा जा रहे है । आचार्य की आज्ञा के विरुद्ध हममे कौन निषेध कर सकता था।" एक और व्यक्ति बोल उठा । उसकी आखें चमकीली और चेहरा भरा हुआ एवं सुन्दर था। उसने कहा-जब तुम इस प्रकार खिन्न हो तब वहां चल ही क्यो रहे हो ? अब भी लौटने का समय है । वह मुस्कराया। महाकुमार महेन्द्र ने मुस्क- राकर मधुर स्वर से कहा-भाइयो ! जब मैंने इस यात्रा का सकल्प किया था, तब तुमने क्यों मेरे साथ चलने और भले-बुरे मे साथ देने का इतना हठ किया था? ऐसी क्या आपत्ति थी? एक ने धीमे स्वर मे उत्तर दिया-स्वामिन् ! हम आपको प्यार करते थे। दूसरे ने मन्द हास्य से कहा -वाह ! यह खूब जवाब दिया ! मैं स्वामी को प्यार करता हूं, इसलिए उसकी जो आज्ञा होगी वह मानूगा, जहा वह लिवा जाएगा, वहा जाऊगा!-फिर गम्भीरतापूर्वक कहा-और मैं समझता हूं कि मैं उन अपरिचित मनुष्यों को भी प्यार करता हूं, जो इस असीम समुद्र के उस पार रहते है। यह कहकर उसने उस अन्धकारावृत दक्षिण दिशा की ओर उंगली उठाई, जहां शून्य भय के सिवा कुछ दीखता न था। उसने फिर कहा-जो आत्मा के गहन विषयों से अनभिज्ञ है, जो तथागत के सिद्धान्तों को नही जान पाए है, जो दुख मे मग्न अबोध संसारी है, उन्हे मैं प्यार करता हूं। तथागत की आज्ञा है कि उनपर अगाध करुणा करनी चाहिए । मेरा हृदय उनके प्रेम से ओतप्रोत है। मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि वे हमे बुला रहे हैं, चिरकाल से बुला रहे हैं। आह ! उन्हे हमारी