पृष्ठ:बाहर भीतर.djvu/७२

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७२ भिक्षुराज करद होकर मेरे पास भेट लेकर आता। परन्तु मै उस प्रदेश की गली-गली मे एक-एक ग्रास अन्न मांगूगा, और बदले में सद्धर्म का पवित्र रत्न उन्हे दूगा । क्या यह मेरे लिए और तुम्हारे लिए भी आर्या संघमित्रा, अलभ्य कीति और सौभाग्य की बात नहीं ? क्या तथागत प्रभु को छोड़कर और भी किसी सद्धर्मी ने ऐसा किया था? प्रभु की स्पर्धा करने का सौभाग्य तो भूत और भविष्य मे आर्या संघमित्रा ! हमी दोनो जीवो को प्राप्त होगा, तुम्हे मुझसे भी अधिक, क्योकि सम्राट् की कन्या होकर भिक्षुणी होना स्त्री-जाति मे तुम्हारी समता नही रखता । आर्या ! इस सौभाग्य की अपेक्षा क्या राजवैभव अति प्रिय है ? सोचो ! यह अधम शरीर और अनित्य जीवन जगत् के असंख्य प्राणियों का कैसा नष्ट हो रहा है। परन्तु हमें उसकी महाप्रतिष्ठा करने का कैसा सुयोग मिला है, कदाचित् भविष्य-काल मे सहस्रों वर्षों तक, हम लोगो की स्मृति श्रद्धा और सम्मानसहित जीवित रहेगी। इतना कहकर महाकुमार मौन हुए । कुमारी धीरे-धीरे उनके चरणों मे झुक गई। उसने अपराधिनी शिष्या की भाति प्रथम बार सहोदर भाई से मानो भ्रात- सम्बन्ध त्यागकर अपनी मानसिक दुर्बलता के लिए करबद्ध हो क्षमा-याचना की, और महाकुमार ने कर्मठ भिक्षु की भाति उसका सिर स्पर्श करके कहा-कल्याण ! इसके बाद ही नौका तैयार हुई, और वह फिर लहरो की ताल पर नाचने लगी। बारहों साथी निस्तब्ध-से समुंद्र की उत्तुग तरंगो मे मानो उस क्षुद्र तरणी को घुसाए लिए जा रहे थे। एक दिन और रात्रि की अविरल यात्रा के बाद समुद्र-तट दिखाई दिया। उस समय धीरे-धीरे सूर्य डूब रहा था, और उसका रक्त- प्रतिबिंब जल मे आन्दोलित हो रहा था। महाकुमारी ने सूर्य की ओर देखा और मन ही मन कहा—सूर्यदेव ! अभी उस चिर-परिचित प्रभात मे मै एक अविकसित अरविद कली थी। तुम्हारी स्वर्ण-किरण के सुखद स्पर्श से पुलकित होकर खिल पड़ी। मै अपनी समस्त पंखुडियों से खिलकर दिन-भर निर्लज्ज की भाति तुम्हें देखती रही। हाय ! किन्तु तुम कितनी उपेक्षा से जा रहे हो ! जाते हो तो जाओ, मैं अपना समस्त सौरभ तुम्हारे चरणो मे लुटा चुकी हू । अब सूखकर रज-कण मे मिल जाना ही मेरी चरमगति है। उसने अति अप्रकट भाव से अस्तंगत सूर्य को प्रणाम किया, और टप से एक बूद आंसू गोद में रखे बोधि-वृक्ष पर टपक पड़ा।