पृष्ठ:बाहर भीतर.djvu/७४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

भिक्षुराज ७५ + नदिया उन्हे पार करनी पड़ी। अन्त में राजधानी निकट आई। राजा अन्ध-विश्वासो से परिपूर्ण वातावरण मे था। सैकड़ों जादूगर, मूर्ख. पाखण्डी उसे घेरे रहते थे । उन्होने उसे भयभीत कर दिया कि यदि वह उन भिक्षु- यात्रियो से मिलेगा तो उसपर देवी कोप होगा, और वह तत्काल मर जाएगा। परन्तु उसने सुन रखा था कि आगन्तुक चक्रवर्ती सम्राट अशोक के पुत्र और पुत्री है। उसमे सम्राट् को अप्रसन्न करने की सामर्थ्य न थी। उसने उनके स्वागत का बहुत अधिक आयोजन किया। उसे खयाल था, महाराजकुमार के साथ बहुत-सी सेना-सामग्री, सवारी आदि होगी। पर जब उसने उन्हें पीत वस्त्र पहने, पृथ्वी पर दृष्टि किए, नगे पैरो धीरे-धीरे पैदल अग्रसर होते और महाराजकुमारी तथा अन्य अनुचरों को उसी भाति अनुगत होते देखा, तो वह आश्चर्यचकित रह गया, और जब उसने सुना कि उसकी समस्त भेट और सवारी उन्होने लौटा दी है, और वे इसी भाति पैदल भयानक यात्रा करके आए है तो वह विमूढ़ हो गया। कुमार पर उसकी भक्ति बढ गई । उसने देखा, राजकुमार के सिर पर मुकुट और कानो मे कुडल न थे, पर मुख काति से देदीप्यमान हो रहा था। उन्होने हाथ उठाकर राजा को 'कल्याण' का आशीर्वाद दिया। राजा हठात् उठकर महाकुमार के चरणो मे गिर गया । समस्त दरबार के सम्भ्रात पुरुष भी भूमि पर लोटने लगे। महाकुमार ने प्रबोध देना प्रारम्भ किया, और कहा : "राजन्, क्षमा हमारा शस्त्र और दया हमारो सेना है । हम इसी राजबल से पृथ्वी की शक्तियो को विजय करते है। हम सद्धर्म का प्रकाश जीवो के हृदयों मे प्रज्वलित करते फिरते हैं। हम त्याग, तप, दया और सद्भावना से आत्मा का शृगार करते है। हे राजन् ! हम अपनी ये सब विभूतियां आपको देने आए है। आप इन्हे ग्रहण करके कृतकृत्य हूजिए।" राजा धीरे-धीरे पृथ्वी से उठा । उसने कहा-और केवल यही विभूतिया ही आपके इस प्रशस्त जीवन का कारण है ? राजकुमार ने स्थिर गम्भीर होकर कहा-हा। "इन्हीको पाकर आपने साम्राज्य का दुर्लभ अधिकार तुच्छ समझकर त्याग दिया ?" "हां, राजन् !" "और इन्हीको पाकर आप भिक्षावृत्ति मे सुखी है, पैदल यात्रा के कष्टो को ।