पृष्ठ:बाहर भीतर.djvu/७५

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भिक्षुराज सहन करते है, तपस्वी जीवन से शरीर को कष्ट देने पर भी प्रफुल्लित है।" "हा, इन्हींको पाकर।" "हे स्वामी ! वे महाविभूतिया मुझे दीजिए, मै आपका शरणागत हूं।" भिक्षुराज ने एक पद आगे बढकर कहा-राजन्, सावधान होकर बैठो। राजा घुटनों के बल धरती पर बैठ गया। उसका मस्तक युवक भिक्षुराज के चरणों मे झुक रहा था। महाकुमार ने कमडलु से पवित्र जल निकालकर राजा के स्वर्ण-खचित राज- मुकुट पर छिड़क दिया, और कहा : "कहो- बुद्ध शरणं गच्छामि। सघं शरण गच्छामि। सत्य शरण गच्छामि।" राजा ने अनुकरण किया। तब भिक्षुराज ने अपने शुभ हस्त राजा के मस्तक पर रखकर कहा-~-राजन् उठो! तुम्हारा कल्याण हो गया। तुम प्रियदर्शी सम्राट के प्यारे सद्धर्मी और तथागत के अनुगामी हुए। इसके बाद राजा की ओर देखे बिना ही भिक्षु-श्रेष्ठ अपने निवास को लौट गए। उनके लिए राजमहल में एक विशाल भवन निर्माण कराया गया। और उसमे श्वेत चदोवा ताना गया था, जो पुष्पो से सजाया गया था। महाकुमार ने वहा बैठकर अपने साथियों के साथ भोजन किया और तीन बार राजपरिवार को उप- देश दिया। उसी समय तिष्य के लघु भ्राता की पत्नी अनुला ने अपनी पांच सौ सखियों के साथ सद्धर्म ग्रहण किया। सध्या का समय हुआ, और भिक्षु-मण्डली पर्वत की ओर जाने को उद्यत हुई। महाराज' तिष्य ने आकर विनीत भाव से कहा-पर्वत बहुत दूर है, और अति विलम्ब हो गया हैं, सूर्य छिप रहा है, अतः कृपा कर नन्दन उपवन मे ही विश्राम करे। महाकुमार ने उत्तर दिया-राजन्, नगर में और उसके निकट वास करना भिक्षु का धर्म नही। 'तब प्रभु महामेघ-उपवन मे विश्राम करें; वह राजधानी से न बहुत दूर है,