पृष्ठ:बाहर भीतर.djvu/७६

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भिक्षुराज ७७ न निकट ही।" महाकुमार सहमत हुए, और महामेघ-उपवन मे उनका आसन जमा। दूसरे दिन तिष्य पुष्प-भेंट लेकर सेवा में उपस्थित हुआ । महाकुमार ने स्थान के प्रति संतोष प्रकट किया । तिष्य ने प्रार्थना की कि वह उपवन भिक्षु-सघ की भेंट समझा जाए, और वहां विहार की स्थापना की जाए। भिक्षुराज ने महाराज तिष्य की यह प्रार्थना स्वीकार कर ली। महामेघ- अनुष्ठान के तेरहवें दिन, आषाढ़-शुक्ल त्रयोदशी को महाकुमार महेन्द्र, राजा का फिर आतिथ्य ग्रहण करके, अनुराधपुर के पूर्वी द्वार से मिस्सक पर्वत को लौट चले । महाराज ने यह सुना तो वह अनुला और सिंहालियों को साथ लेकर, रथ पर बैठकर दौड़ा। महेन्द्र और भिक्षु तालाब मे स्नान करके पर्वत पर चढ़ने को उद्यत खडे थे। राजवर्ग को देखकर महाकुमार ने कहा-राजन्, इस असह्य ग्रीष्म मे तुमने क्यो कष्ट किया? "स्वामिन्, आपका वियोग हमे सह्य नही।" "अधीर होने का काम नही । हम लोग वर्षा-ऋतु में वर्षा-अनुष्ठान के लिए यहा पर्वत पर आए है, और वर्षा-ऋतु यही पर व्यतीत करेगे।" महाराज तिष्य ने तत्काल कर्मचारियो को लगाकर ६८ गुफाए वहा निर्माण करा दी, और भिक्षुगण वहा चतुर्मास व्यतीत करने को ठहर गए । एक दिन तिष्य ने कहा : "स्वामिन्, यह बड़े खेद का विषय है कि लंका में भगवान् बुद्ध का ऐसा कोई स्मारक नही जहा उसकी भेंट-पूजा चढ़ाकर विधिवत् अर्चना की जाए। यदि प्रभु स्मारक के योग्य कोई वस्तु प्राप्त कर सकें तो उसकी प्रतिष्ठा करके उसपर स्तूप बनवा दिया जाए।" महाकुमार महेन्द्र ने विचारकर सुमन भिक्षु को लका-नरेश का यह सदेश लेकर सम्राट् प्रियदर्शी अशोक की सेवा में भारतवर्ष भेज दिया। उसने सम्राट् से महाकुमार और महाकुमारी के पवित्र जीवन का उल्लेख करके कहा-चक्रवर्ती की जय हो ! महाकुमार और लंका-नरेश की इच्छा है कि लंका में तथागत के शरीर का कुछ अंश प्रतिष्ठित किया जाए, और उसकी पूजा होती रहे।