पृष्ठ:बाहर भीतर.djvu/७७

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भिक्षुराज अशोक ने महाबुद्ध के गले की एक अस्थि का टुकड़ा उसे देकर विदा किया । महाकुमार उस अस्थि-खण्ड को लेकर फिर महामेघ-उपवन मे आए। वहा राजा अपने राजकीय हाथी पर छत्र लगाए स्वागत के लिए उपस्थित था। उसने अस्थि-खण्ड को सिर पर धारण किया, और बड़ी धूम-धाम से उसकी स्थापना की । उस अवसर पर तीस सहस्र सिंहालियो ने बौद्ध धर्म ग्रहण किया । द्वीप-भर में बौद्ध-धर्म का साम्राज्य था। सम्राट ने अपने पवित्र पुत्र और पुत्री को तीन सौ पिटारे भरकर धर्म-ग्रथ उपहार भेजे थे। उन्हे वहाके निवासियो को उन्होने अध्ययन कराया। एक बच्चा भी अब बौद्धो की विभूति से वचित न था। भिक्षुराज महाकुमार महेन्द्र कठिन परिश्रम और तपश्चर्या करने से बहुत दुर्बल हो गए थे। वृद्धावस्था ने उनके शरीर को जीर्ण कर दिया था। महाराज- कुमारी ने द्वीप की स्त्रियों को पवित्र धर्म मे रग दिया था। दोनो पवित्र आत्माएं अपने जीवनो को धैर्य से गला चुके थे। उन्हे वहा रहते युग बीत गया था। एक दिन भिक्षुराज महेन्द्र ने कुमारी संघमित्रा से कहा : "आर्या संघमित्रा ! मेरा शरीर अब बहुत जर्जर हो गया है। अब इस शरीर का अन्त होगा। यह तो शरीर का धर्म है । तुम प्राण रहते अपना कर्तव्य पूर्ण किए जाना।" उसके मुख पर सन्तोष के हास्य की रेखा थी। उसी रात्रि को एक अनुचर ने, जो कुमार के निकट ही सोता था, देखा कि उनका आसन खाली है। वह तत्काल उठकर चिल्लाने लगा हे प्रभु ! हे प्रभु ! समुद्र की लहरें किनारों पर टकराकर उस पार के मित्रों की आनन्द-ध्वनि ला रही थी। अनुचर ने देखा, महाकुमार भिक्षुराज बोधि-वृक्ष को आलिगन किए पड़े है । उनके नेत्र निमीलित है । अनुचर लपककर चरणों में लोट गया। लोग जाग गए थे और वही को आ रहे थे। इस भीड़ कोदेखकर कुमार मुस्कराए, सबको आशी- वर्वाद देने को उन्होने हाथ उठाया, पर वह दुर्बलता के कारण गिर गया। धीरे-धीरे उनका शरीर भी गिर गया। अनुचर ने उठाकर देखा तो वह शरीर निर्जीव था। उस स्निग्ध चन्द्रमा की चांदनी में, उस पवित्र बोधि-वृक्ष के नीचे वह त्यागी राज- पुत्र, ससागरा पृथ्वी का एकमात्र उत्तराधिकारी धरती पर निश्चिन्त होकर अटूट