पृष्ठ:बाहर भीतर.djvu/८

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कहानीकार का वक्तव्य
 

मैंने अपनी कहानी 'दुखवा मैं कासे कहूं' लिखकर दुलारेलाल भार्गव को लखनऊ भेजी, जो आगे चलकर बहुत प्रसिद्ध हुई। 'सुधा' उन्होने तब निकाली ही थी। एक दिन मुझे उनका पोस्टकार्ड मिला। लिखा था, 'आपको यदि नागवार न गुजरे तो हम कहानी का पारिश्रमिक आपको देना चाहते हैं।' पाठक मेरी खुशी का अनुमान न लगा सकेगे। यह एक ऐसी आमदनी का सीगा खुल रहा था जिसकी मैंने कल्पना भी नहीं की थी। अब तक तो मैं इसीमें खुश था कि मेरी रचनाएं छप रही हैं। तब मैं 'प्रताप', कानपुर में ही लेख भेजता था, पर उसने कभी एक धेला भी पारिश्रमिक नहीं दिया था। अतः कार्ड का मैंने तुरन्त उत्तर दिया कि 'पुरस्कार यदि मुझे काट न खाए तो मुझे किसी हालत में उसका भेजा जाना नागवार न गुज़रेगा। कुछ दिन बाद ही पांच रुपये का मनीआर्डर मिला। उस दिन मैंने सपत्नीक जशन मनाया और कई दिन उन पांच रुपयो का हम लोगों को नशा रहा। उसके बाद श्री सहगल ने पहले दो रुपये, फिर चार रुपये पृष्ठ का निर्ख मुर्रिर कर दिया और मेरी? कहानियां मेरी एक आंशिक आमदनी का जरिया बन गई। मैंने भी अब कहाचाही लिखने की ओर ध्यान दिया।

सन् १९०६ और ७ के बीच जब मैंने लेखनी को छुआ, तो वह काल आज के काल से सर्वथा भिन्न था। देश नीद से जागकर चौकन्ना हो रहा था। बंग-भंग पर बंगाली तरुणों ने पहली हुंकार भरी थी-और पंजाब केसरी लाला लाजपत-राय और सरदार अजीतसिंह को मांडले में देश-निकाला दे दिया गया था। मुझे याद है, लालाजी के देश-निकाले पर मेरी पहली कविता बम्बई के श्री बैंकटेश्वर?

समाचार में छपी थी। उन दिनों में पांचवीं या छठी कक्षा में पढ़ता था। बंगवासी और भारतमित्र में बंग-विप्लव की कथा मैं तब बड़े चाव से पढ़ता था। बहुधा मैं उन विषयों पर कविता लिखता रहता था। इन्हीं दिनो मेरे हाथ मेवाड़ के इतिहास की एक पोथी आ लमी थी। उसका तो मैं नित्य पाठ करता था। इससे मेवाड़ की बीरमाथा की छाप मेरे हृदय में घर कर बैठी और मैं वीररस की कविता कर-करके मित्रों को भेजने लगा। पिताजी आर्यसमाजी और समाज-सुधारक थे। उनके काम करने के ढंग बड़े ओजस्वी और प्रभावशाली होते थे। उनका मेरे मन पर जो प्रभाव पड़ा उससे मैंने कुरीतियों के विरुद्ध कलम उठाई। मेरा ख्याल है, सबसे पहले मैंने 'हिन्दुओं की छाती पर जहरीली छुरी' नाम की एक छोटी-सी पुस्तिका लिखी, जिसमें विधवाओं की हिमायत थी। पीछे यह पुस्तिका चालीस-