पृष्ठ:बाहर भीतर.djvu/८०

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आचार्थ उपगुप्त यह कहानी सन् १९२८ में लिखी गई थी। इसमें सम्राट अशोक का कलिंग- विजय के पश्चात् भाव-परिवर्तन का अंतरंग रेखाचित्र है। कहानी में भाव- व्यंजना, तथ्य और ध्वनि सभी कुछ कल्पना और सत्य के मिश्रण से व्यक्त की गई है | यह कहना कठिन है कि कहानी में तथ्य वैशिष्टय है या भाव- वैशिष्टय । परन्तु यह कहानी-कला की दृष्टि से लेखक की तत्कालीन रचना का उत्तम नमूना है । यह कहानी आठ मास में पूरी हुई थी । सन्ध्या हो चुकी थी, सूर्य अस्त हो गया था, पर पश्चिम दिशा मे अभी लाल आभा शेष थी। पूर्व-दक्षिण कोण से जो प्रधान राजमार्ग मथुरा को जाता है, उसपर तीन यात्री धीरे-धीरे आगे बढ़ रहे थे। यात्री बहुत दूर से आ रहे थे और वे अत्यन्त क्लान्त और थकित थे। उनमे एक वृद्ध था, दो युवक । उन दोनों मे भी एक अति- किशोर वयस्क सुकुमार बालक था, जिसकी आयु कठिनता से चौदह की होगी। मध्यवर्ती युवक ने वृद्ध को सम्बोधित करके पूछा-लल्ल ! मथुरा तो आगई,आशा है, अब विश्राम मिलेगा। परन्तु लल्ल !क्या तुम्हे आशा है कि श्रेष्ठिवर हमे आश्रय देंगे? वे हमे पहचान सकेगे, और हमारा भेद गुप्त रख सकेगे? "अवश्य ही ऐसा होगा, श्रेष्ठि धनगुप्त महाराज के परम मित्र, अनुगृहीत और सेवक है।" किशोर वयस्क बालक ने अतिशय क्लान्त होकर कहा-महानायक ! अब और कितना चलना पड़ेगा? मुझसे तो एक पग भी और चलना कठिन है। देखो, मेरे पैर क्षत-विक्षत हो गए है। लल्ल' ने क्षणभर रुककर, पीछे फिर एक बालक को देखा, उसके ओष्ठ कम्पित हुए और नेत्रों मे एक कण अश्रु-बिन्दु आकर गिर गया। पर उसने किंचित् हंसकर कहा-अब तो आ गए, थोड़ा धैर्य और ! "अब और नहीं" कहकर बालक वही सड़क पर बैठ गया। दूसरे युवक ने