पृष्ठ:बाहर भीतर.djvu/८२

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आचार्य उपगुप्त मे बांध लिया। कुछ ठहरकर लल्ल बोले-समझा ! पिता के बाद लक्ष्मी ने भी उसके पुत्र को त्याग दिया ! वाह रे कराल काल ! जिसके नव-व्यापार से समुद्र पटा रहता था और यवन, चीन तक जिसकी हुण्डी चलती थी, उसका यह पुत्र नंगे पांव खड़ा राज-मार्ग पर अतिथि का सत्कार कर रहा है, और जहा द्वार पर सेना और हाथियो की पक्ति रहती थी, वहां यह घर है !"-यह कहकर लल्ल रोने लगे । एक बार उन्होने फिर युवक को छाती से लगा लिया। उपगुप्त ने धैर्य से पूछा-आर्य ! परिचय देकर कृतार्थ करे । यह तो मैं समझ गया, आर्य पितृ-तुल्य पूज्य है,आज मेरा जन्म इन चरणो की सेवा से कृतार्थ होगा। "श्रेष्ठिवर उपगुप्त ! ईश्वर को धन्यवाद है कि श्रेष्ठिवर धनगुप्त का विनय, सौजन्य और अतिथि-सत्कार आपमे अवशिष्ट है, जो श्रेष्ठिवर की सब सम्पत्तियो में अमूल्य थी, परन्तु अब परिचय की आवश्यकता नही, ईश्वर आपका कल्याण करे!" इतना कहकर लल्ल चलने को तैयार हुए। उपगुप्त ने कातर स्वर से कहा- आर्य क्या दरिद्रता के कारण दास को आप त्याग रहे हैं ? यह न होगा। श्रीमान् यदि मेरा आतिथ्य न स्वीकार करेंगे, तो मैं प्राण त्याग दूगा ! आर्य ! मैं कभी झूठ नही बोलता। लल्ल क्षण-भर स्तब्ध खड़े रहे। फिर उन्होंने कहा-वेष्ठिवर, मेरे साथ और भी दो व्यक्ति हैं, देखो वे सम्मुख खड़े हैं। "आह, आपने कहा नहीं " यह कहकर उपगुप्त उधर दौड़े। लल्ल ने रोककर कहा-श्रेष्ठिवर, ठहरिए, निस्सन्देह हम लोग आपके पिता का आश्रय प्राप्त करने यहां आए थे। पर अब नही । श्रेष्ठिराज, हम लोग आपको विपत्ति और चिन्ता में नही डालेंगे। ईश्वर आपका कल्याण करे ! "तब आर्य ! मैं निश्चय प्राण-त्याग करूंगा।" "नही महोदय ! आपका इस अवस्था मे आतिथ्य स्वीकार न करने के कारण हैं । आप हमारे कारण विपत्ति में पड़ सकते हैं।" "परन्तु महोदय ! मैं प्राण देकर भी हर्षित हूंगा। आर्य ! आज तक मैं अपने दारिद्रय के लिए लज्जित नही हुआ। क्या अब श्रीमान् मुझे लज्जित करेंगे?" "नहीं, नहीं, श्रेष्ठिराज, बात कुछ और ही है । अच्छा तब मैं स्वामी से आज्ञा ले लू !"