पृष्ठ:बाहर भीतर.djvu/८४

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आचार्य उपगुप्त ८५ क्या किसी भी तरह तुम व्यवस्था नही कर सकती? क्या और कोई आभूषण नहीं "नही।" "तब कोई अनावश्यक पात्र बन्धक रख दिया जाए।" "यही होगा और उपाय क्या है ?" उपगुप्त ने विकल होकर कहा-परन्तु कुन्द! तुम्ही इसकी व्यवस्था कर देना जिसमे हमारा नाम न प्रकट हो । कुन्द ने कुछ कहने को मुख खोला ही था कि द्वार से कुछ मनुष्यो ने श्रेष्ठि को पुकारा। श्रेष्ठि ने बाहर आकर देखा, आठ-दस राज-कर्मचारी है और साथ मे है ऋणदाता महाजन। उसने कर्कश स्वर मे कहा-श्रेष्ठि उपगुप्त ! हमारा चुकता पावना अभी चुकाओ अथवा बन्दीगृह में जाओ। श्रेष्ठिवर ने घबराकर विनयपूर्वक कहा-मित्र ! आप तो जानते ही है, मैं इस समय कितने कष्ट में हू; फिर आज अभी मेरे घर मे पूज्य अतिथि आए है । श्रेष्ठिवर, कुछ और धैर्य धारण कीजिए, वरना बड़ा अनर्थ होगा। ऋणदाता ने अवज्ञा से हसकर कहा-मै ऐसा मूर्ख नही। रकम भी छोटी नहीं। अब और धैर्य किस आशा पर ? दस सहस्र अभी दो, अन्यथा ये कर्मचारी, तुम्हें बन्दी कर लेगे। उपगुप्त ने विवश होकर कहा-तब मुझे कुछ क्षण का तो अवकाश दीजिए, मैं अपने अतिथियो और पत्नी की कुछ व्यवस्था कर दू । प्रधान राज-कर्मचारी ने कुछ आगे बढकर कहा-महोदय ! इसके लिए हम लोग बाध्य नही। क्या आप कृपापूर्वक अभी वह देते है ? "नही, धन अभी नही !" "तब सैनिको, इन्हे बाध लो।" क्षणभर मे सैनिकों ने श्रेष्ठि को बाध लिया। विवाद सुनकर लल्ल और राजकुमारी बाहर आ गए थे । कुन्द भी सब व्यापार देख रही थी। सभी विमूढ- वत खड़े रहे। वे लोग श्रेष्ठिवर को बांध ले चले । कुन्द पछाड़ खाकर धरती पर गिर पड़ी। "राजकुमारी शैला ने लल्ल को बुलाकर धीरे से कहा-महानायक ! इस