पृष्ठ:बाहर भीतर.djvu/८५

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आचार्य उपगुप्त विपन्नावस्था में हमे श्रेष्ठि और उनकी पत्नी की पूर्ण शुश्रूषा करनी होगी।-राज- कुमारी लल्ल से कुछ परामर्श करने लगी। कुमारी की बात सुनकर लल्ल ने चौक- कर कहा-यह तो अत्यन्त भयानक है ! "चाहे जो कुछ भी हो।" "नही, कुमारी ! ऐसा न होने पाएगा।" "यही होगा भयानक ।" "कुमारी, सोच लो, राजमाता इसे कदापि न स्वीकार करेंगी।" "हम लोगो का कर्तव्य है कि उन्हे सहमत करें।" "पर यह भारी दुस्साहस है।" "मैंने उसे करने का निश्चय कर लिया है। श्रेष्ठिवर को छुड़ाने का और उपाय नही ।जब वे उन्हे बांध रहे थे, उसी समय मेरे मन में यह विचार आया था।" महानायक गम्भीर दुःख और विचार मे मग्न हो गए। घटना का विवरण सुनकर महारानी ने कहा-श्रेष्ठिवर को इस कष्ट से प्राण देकर भी मुक्त करना होगा महानायक ! राजकुमारी ने उतावली से कहा-माता, वह मैं करूंगी ! "तू क्या करेगी?" महारानी ने बालिका को दृष्टि गाड़कर देखा। "भैया से मेरी आकृति बिलकुल मिलती है, क्यों महानायक ?" "तब?" "और पुरुष-वेश में मैं, भैया ही मालूम होती हूं-यह तुम बारम्बार कह चुकी हो।" "हां, पर इससे क्या?" "भैया को जीवित या मृत पकड़वानेवाले का पुरस्कार दस सहस्र है, इतना ही तो श्रेष्ठिवर को चाहिए? मैं अपने को भैया की जगह पकड़वाए देती हूं- उन रुपयों से श्रेष्ठिवर मुक्त हो जाएगे।" इतना कहकर शैला खिलखिलाकर हंस पड़ी। रानी पर वज्र गिर पड़ा, वह घबराकर बोली-वाह, यह कैसी बात? "क्यों ?" कुमारी ने गम्भीर होकर कहा ।